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दक्षिण देश में अनेक वेदपाठी द्विज थे । पुराणपुरुष विष्णु की उपासना मंत्रपाठ कर के की जाती थी। महाभारत और रामायण का पाठ होता था । यज्ञादि अनुष्ठान भी होते थे । गृहस्थ सन्मार्गस्थ थे। वे वैवाहिक जीवन बिताते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन करते थे । वणिक् व्यवसायकुशल और धर्मभीरु हुआ करते थे । प्रायः सभी लोग निर्मल प्रकृति के होते थे ।
राजा अपराधियों को दण्ड देता था; परन्तु वह वेदमार्ग का उल्लंघन नहीं करता था। अपराध करने वालों की संख्या प्रायः नहीं सी होती थी। शांति का समय था । युद्ध न होने के कारण राजा आखेट में ही अपना शस्त्र - कौशल प्रदर्शित करते थे । घर-द्वार स्वस्तिक चिह्नों और चित्रों से सजाए जाते थे। साधन-सम्पन्न व्यक्तियों के भवन राजसी ठाठबाट से युक्त होते थे। उनके भव्य द्वार पर याचकों की भीड़ लगी रहती थी । भित्तियाँ और आंगन विविध प्रकार के रंगीन पत्थरों से सजाए जाते थे। द्वार पर खेलते हुए बालकों से घर की शोभा बढ़ी हुई मानी जाती थी । अन्त: पुर की स्त्रियाँ शुद्ध और सात्विक जीवन बिताया करती थीं। वे सौंदर्य से ही नहीं गुणों से भी प्रशंसा की अधिकारिणी बनती थीं। स्त्री-शिक्षा का प्रचार था । विविध शास्त्रों और कलाओं का अभ्यास कर के वे परिवार के कल्याण के लिए सचेष्ट रहती थीं । कन्या - जन्म को अच्छा नहीं माना जाता था परन्तु कन्या पर माता-पिता का स्नेह कम होता हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। उनको पति चुनने की स्वतंत्रता थी । स्वयंवर प्रथा में विश्वास था। समाज में वेश्याएँ भी होती थीं। वेश्यागमन को अनुचित नहीं समझा जाता था; परन्तु कुलीनता के आचरण में वेश्यागमन सम्मिलित नहीं था । शबर, किरात, किन्नर जाति की स्त्रियों की स्वच्छन्द प्रकृति का वर्णन कवि ने बड़े ही सुन्दर ढंग से किया है।
राज-परिवारों में प्रातःकाल होते ही मंगल वाद्य बजने लगते थे । प्रहर बीतने की सूचना भी नगारों की ध्वनि से दी जाती थी। राजभवन में विविध कक्ष होते थे । अन्तःपुर नारी - अवरोध के केन्द्र नहीं थे । दमयन्ती अपने गवाक्ष में से उत्तर से आने वाले पथिकों को देख सकती थी और वार्ताहरों से वार्तालाप कर सकती थी । फिर भी स्त्रियाँ अविश्वस्त समझी जाती थीं । भोग को रोग, सम्पत्ति को मृत्यु, राजपद को धूलि, लक्ष्मी को राजयक्ष्मा और स्त्रीवृन्द को तृण-सम समझने वाले मुनियों का राज - परिवारों में पर्याप्त स्वागत होता था । सत्संगति की महिमा समाज और राज-परिवार सब में व्याप्त थी 1
राजभवन में शयन, विनोद, क्रीड़ा, स्नान आदि के लिए पृथक् पृथक् आस्थान नियत थे। राजा इनमें जाकर अपनी दैनंदिन क्रियाएँ सम्पन्न करते थे । वे कवि गोष्ठी, संगीत गोष्ठी, ब्राह्मण गोष्ठी आदि में भी भाग लिया करते थे । राजा विविध विद्याओं और कलाओं का जानकार होता था ।
समाज में उत्सव मनाए जाते थे । एक स्थान पर पुरोहित द्वारा नदीयाग (षष्ठ उच्छ्वास, ११ वें श्लोक से आगे) सम्पन्न कराया गया था । यह कूपमह, वृक्षमह आदि विविध मखों में से एक
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