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६. धैर्य धामवतां धनम्।१६२ ७. सर्वंसहा सूरयः।१६३ ८. जानन्ति हि गुणान्वक्तुं तद्विधा एव तादृशाम्।१६४ ९. जानाति हि पुनः सम्यक् कविरेव कवेः श्रमम्।१६५ १०. उपकर्तुं प्रियं वक्तुं कर्तुं स्नेहमकृत्रिमम्। सज्जनानां स्वभावोऽयम्।१६६ ११. विवेकः सह सम्पत्त्या विनयो विद्यया सह।
प्रभुत्वं प्रश्रयोपेतं चिह्नमेतन्महात्मनाम्॥१६७ १२. सोच्छासं मरणं निरग्निदहनं निःश्रृंखलं बन्धनं,
निष्पंकं मलिनं विनैव नरकं सैषा महायातना। सेवासंजनितं जनस्य सुधियो धिक्पारवश्यं यतः, पंचानां सविशेषमेतदपरं षष्ठं महापातकम्॥१६८
ऐसी सूक्तियों से समकालीन लोक विश्वास और आचार-धर्म की ओर संकेत किया गया है। ऐसी सूक्तियाँ उन सूत्रों में बदल जाया करती हैं जो समाज की चिन्तन व आचार-परम्परा को प्रभावित करने वाली कहावतें कहलाती हैं। अन्त:प्रकृति और लोकाचार का समन्वय हमें सालंकायन के उपदेश में देखने को मिलता है जो बाणभट्ट के शुकनासोपदेश के समकक्ष रखा जा सकता है।
दमयन्तीकथाचम्पू में वर्णित समाज यद्यपि दमयन्तीचम्पू का कथानक पौराणिक है परन्तु यह स्वाभाविक ही है कि उसमें समकालीन समाज का संश्लिष्ट चित्र भी प्रस्तुत हुआ है। अन्य काव्य-कृतियों से तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज बड़ी धीमी गति से परिवर्तित हुआ करता है। इसलिए यह आशा करना व्यर्थ ही होगा कि त्रिविक्रम ने किसी क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन को संकेतित किया हो।
त्रिविक्रम के अनुसार उस समय वर्णाश्रम धर्म का व्यापक प्रचार था। राजा चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का रक्षक माना जाता था। लोग पाप से डरते थे। लोगों की समृद्धि का पता कवि द्वारा वर्णित विलास-चेष्टाओं से लगता है। सौंदर्य और समृद्धि देवकृपा के फल माने जाते थे। नल और भीम प्रातः और सायं सन्ध्यानुष्ठान करते थे।
समाज में शिव, कार्तिकेय, विष्णु आदि विविध देवताओं की पूजा प्रचलित थी। स्थान-स्थान पर देवायतन बने हुए थे। पूजा आदि के लिए पुरोहित होते थे। पुरोहित राज्य-परिवार के योग-क्षेम के रक्षक होते थे। लोग छन्दःशास्त्र, आयुर्वेद, गान्धर्वविद्या, काव्य-रचना, व्याकरण, पुराण-विद्या, वेद-विद्या, ज्योतिष-विद्या आदि के ज्ञाता होते थे और इनका जीवन में नियमित रूप से अभ्यास किया जाता था।
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