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________________ ४६ दिनचर्या का वर्णन नल और भीम के वर्णन में कवि ने उनकी दिनचर्या को भी स्थान दिया है। लक्षणग्रन्थों में अष्टयाम वर्णन की परम्परा चली आती है । वैसा ही इस वर्णन को मानना चाहिए। प्रातः काल ही राजा लोग बंदीजनों की स्तुति से जागते थे । उठते ही दैनन्दिन शौच क्रिया से निवृत्त होकर वे कमलपुष्पों से सूर्य को अर्घ्य देते थे और सन्ध्या वंदन करते थे। तदुपरान्त पुरोहित के सान्निध्य में पारिवारिक योग-क्षेम जान कर प्रजापालन में प्रवृत्त होते थे। दोपहर का नगाड़ा बजने पर राजा स्नानागार में जाकर स्नान करता था। स्वच्छ वस्त्र पहन कर भोजन-स्थान वेदी पर भोजन के लिए आसीन होता था । स्वर्णपात्रों में भात, मिठाइयाँ, मोदक, शाक आदि परोसे जाते थे। वह भोज्यपदार्थों का भोजन करता, लेयों को चाटता, सुस्वादु पदार्थों का आस्वादन करता, पेयों को पीता और चूसने योग्य को चूसता था। इसके बाद आचमन कर के धूप-धूम को सूंघ कर, ताम्बूल-दल का भक्षण करता था । विनोदास्थायिका - स्थान में विनोद गोष्ठी में सम्मिलित होकर वह नटों, कवियों, किन्नरों, विलासिनियों आदि की कला का आनन्द लेता हुआ अपराह्न बिताता था । सन्ध्या होने पर सन्ध्यानुष्ठान सम्पन्न करता था । रात्रि वह अपनी पत्नी के सान्निध्य में बिताता था । १५१ इसी प्रसंग में शिविर के अनुभवों का भी उल्लेख किया जा सकता है । कवि ने तम्बू लगा कर रात्रि व्यतीत करने, प्रात:काल पुनः चलने की तैयारी करने, दोपहर बिताने के लिए वृक्षों की छाया में पड़ाव डालने और चलते समय मार्ग की सुरम्य प्रकृति का दर्शन करने का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है। भोजन करने की सूचना शंख बजाकर दी जाती थी । सब से पहले ब्राह्मणों को भोजन परोसा जाता था। गायों को गोग्रास दिया जाता था । काकबलि देने और दीन, अनाथ, भिक्षुकादि को भोजन कराने और बलि वैश्वदेव से निवृत्त होने के बाद राजा भोजन करने बैठता था । १५२ दमयन्ती ने नल और उसके सहयोगियों के लिए भोजन तैयार करके भेजा उसका वर्णन देखिए - आज्यप्राज्यपरान्नकूरकवलैर्मन्दां विधाय क्षुधां, चातुर्जातकसंस्कृतो नु शनकैरिक्षो रसः पीयताम् । संसारस्पृहणीयतेमनरसानास्वाद्य किञ्चित्ततः, स्निग्धस्तब्धदधिद्रवेण सरसः शाल्योदनो भुज्यताम् ॥' १५३ पक्वान्नों के ढेर लग गए थे, भात की राशियाँ थीं, दाल का ढेर था, घी के झरने थे, मधु के सागर थे, चीनी की राशियाँ थीं, दूध-दही की धाराएँ थीं, तरकारियों के ढेर थे, फल रसों का प्रवाह था । सब को यथेष्ट भोजन करवा कर, घी से चिकने हाथों पर चन्दन का उबटन देकर, नागरखण्ड से बने हुए पान दिए गए थे। १५४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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