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गर्भिणी होने पर प्रियंगुमंजरी अतीव सुन्दर प्रतीत हुई। लोक में मान्यता है कि कन्या गर्भ में हो तो गर्भिणी का सौंदर्य बढ़ जाता है । कवि इस मान्यता से परिचित प्रतीत होता है । खिली आम्रमंजरी जैसे कोमल फलबंध मनोहर प्रतीत होती है वैसे ही कवि के अनुसार रानी मनोहर प्रतीत होने लगी । चन्द्रकला तथा रत्नाकर की तरंगमाला के समान सौंदर्य राशि के कारण वह रानी सुशोभित हुई। उसके पयोधर नीलमणि के कलश के समान सुशोभित हुए । उन्नत चूचुकों में श्यामता आ गई। प्रतिक्षण गर्भभार से आक्रान्त होने से उसकी खिन्नता बढ़ गई । उसमें दोह्रद इच्छा होने लगी। वह चन्द्रकलांकुर के उपभोग की इच्छा करती थी, आम्रवन में विहार करना चाहती थी, मकरन्दतरंग युक्त मलयवात उसे भाती थी, चारों समुद्रों के सौंदर्य रस का वह उपभोग करना चाहती थी और भर पेट अमृतपान करना चाहती थी । लक्षणों की मृदुता से यह प्रतीत हो जाता है कि उसके गर्भ में कन्यारत्न विकसित हो रहा है । इच्छानुसार कार्य सम्पन्न हो जाने से उसकी कान्ति बढ़ जाती थी। उसके कपोलमण्डल पर कस्तूरी - पत्ररचना और अधिक सुन्दर लग रही थी । वह ज्येष्ठा स्त्रियों से घिरी रहती थी। ऐसा इसलिए किया जाता था कि एकान्त में वह दुःखी न हो अथवा किसी कारणवश वह डर न जाए, क्योंकि गर्भस्थ बालक पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। प्रियंगुमंजरी सगर्भा होकर राजा को वैसा ही आनन्द प्रदान करती थी जैसा आषाढ़ की वर्षा पृथ्वी को करती है१४८ । राजा उसकी सब आकांक्षाओं को पूर्ण करता था। परिजन संकेत मात्र से उसकी आज्ञा का पालन करते थे। प्रसव पीड़ा का अनुभव करने के उपरान्त उसने कन्या को जन्म दिया जैसे पृथ्वी ने किसी पुण्यतीर्थ को उत्पन्न किया हो। १४९
त्रिविक्रम ने वीरसेन की पत्नी रूपवती की गर्भावस्था का वर्णन भी किया है। शिव के वर से ही वह गर्भवती हुई थी । ऐसा ज्ञात होता था कि जैसे उसका गर्भ सम्पूर्ण संसार के पदार्थों से निकले कान्तिकणों से निर्मित हो। रूपवती ब्रह्मा के अधिष्ठान को उत्पन्न करने वाली नारायण के नाभिदेश के समान या नवीन पल्लव को उत्पन्न करने वाली कल्पवृक्ष की लता के समान सुशोभित हो रही थी । १५०
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उसके स्तन - चूचुक मृगलांछनयुक्त चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे। वह वसंत, कामदेव और चन्द्रमण्डल के रस से स्वयं को लिप्त करना चाहती थी । वह रत्नमय दर्पण के स्थान पर अपने मुखकमल को शाणयुक्त तलवार में ही देखना चाहती थी । वह नीलकमल के स्थान पर सिंह के केशर के गुच्छों को कर्णभूषण बनाना चाहती थी । वह कस्तूरी लेप के स्थान पर मतवाले हाथी के मदपंक से अपनी बाहुओं पर पत्ररचना करना चाहती थी । ये सब लक्षण पराक्रमी I जन्म की सूचना देने वाले हैं। उसने उत्तम समय में वैसे ही पराक्रमी नल को जन्म दिया जैसे आकाश में सूर्य, मेघों में विद्युत् या अरणियों में अग्नि उत्पन्न होती है । कवि ने इन वर्णनों में लोकविश्वास को आधार बनाया 1
पुत्र
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