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को सहस्रों युगों के परिवर्तन की साक्षी, तपोलीन ब्रह्मर्षियों द्वारा पूजित शिवलिंगों से घिरी हुई, देवरमणियों से सेवित तटीय लता-मण्डप वाली, वन्य हाथियों के मद से सुगन्धित जलतरंगों वाली, अभिनव गंगा, समुद्र की दूसरी पत्नी, मेकलपुत्री नर्मदा के निकट विविध वृक्षों की सघनता से युक्त कहा है। इसमें कई प्रकार के पक्षी और सिंह जैसे हिंस्र जन्तु विचरण करते हैं। इसमें निषादों, किरातों और शबरों की बस्तियाँ बसी हुई हैं। इस कण्टकाकीर्ण भूमि में अनेक प्रकार की ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं। कापालिकों के कारण यह और भी भयंकर दिखाई पड़ती है। निडर ग्रामवासी ऐसे भयानक स्थान में गाय, बैल और भेड़ें चरा रहे हैं। हाथी सल्लकी वृक्षों का स्पर्श कर रहे हैं। पहाड़ी शिखरों पर बन्दर क्रीड़ा कर रहे हैं। ऐसे विन्ध्य के प्रान्तर् को नल का मंत्री श्रुतिशील सेवनीय मानता है।१३५
जलक्रीड़ा-वर्णन ___ दमयन्तीचम्पू में स्नान का भी अतीव सुन्दर वर्णन है। राजा का स्नान तो सुन्दर सुरक्षित मज्जन-भवन में ही हो सकता है। नल मज्जन-भवन में पहुँचे तो वहाँ जल-पूर्ण द्रोणी समुद्र की तरह भरी हुई थी। वहाँ कलश और धौलपट्ट रखे हुए थे। स्नानपीठ पर बैठ कर ही स्नान किया गया। सुन्दर युवती सेविकाएँ उसके शरीर को मल रही थीं, शरीर पर सुगन्धित तैल लगाया गया था
और कुम्भवारि से शरीर का अभिषेक किया गया था। राजा को वह स्नान की सुविधा कहाँ, जो उन्मुक्त जीवन बिताने वाले वन्य लोगों को सहज ही में प्राप्त हो जाती है। स्नानार्थी किरातकामिनियों के वर्णन से इसकी तुलना की जा सकती है। वे पाताल से आई हुई नागमदहारिणी नागपत्नियों के समान थीं। उनके अंग तमालांकुर सदृश कोमल थे। उन्होंने गजमुक्ता की मालाएँ पहन रखी थीं। कानों में हाथी दाँत के कर्णाभूषण पहने हुए थीं। विद्युल्लता सी करघनी पहने हुए वे विन्ध्य-शिखरों पर मंडराने वालो मेघमाला सी लग रही थीं। उनके कानों में अशोक-पुष्पों के गुच्छे लगे हुए थे। उन्होंने वेणियों में मयूरपुच्छ गूंथ रखे थे। वे जोर-जोर से तालियाँ बजा कर नृत्य करती जाती थीं। नूपुरों की ध्वनि से वे हंसों को आकृष्ट कर लेती थीं। गीतलहरी से हंसों के मानस को तरंगित कर देती थीं। वे छाती-भर पानी में उतरीं। उस समय कुरर पक्षी और सारस बोल रहे थे। रमणीय हंस ह्रद की शोभा बढ़ा रहे थे। वे चन्द्रकिरणों से निर्मल जल को पीने लगीं, कमलतन्तु खाने लगीं, जल में तैरने लगीं और हाथों से पानी की धारा गिराने लगीं। उनके स्तनों से टकरा कर पानी तरंगित होने लगा। राजा उनकी रूपश्री को देख कर सोचने लगा कि जहाँ सुन्दर जाति है वहाँ नेत्रोत्सवकारिणी रूप-रचना नहीं है और जहाँ सौंदर्य-लक्ष्मी है वहाँ प्रशंसनीय कुल नहीं है
जातियत्र न तत्र रूपरचना नेत्रोत्सवारम्भिणी,
रूपश्रीरपि यत्र तत्र सुलभः श्राध्यो न जन्मोदयः।१३६ स्थानार्थी किरात-रमणियों को भ्रमर तंग कर रहे थे
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