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दमयन्तीचम्पू में चतुर्थ प्रकार के प्रेम का वर्णन है। पहले नल और दमयन्ती एक दूसरे के गुणश्रवण से उत्कंठित होते हैं। बाद में एक दूसरे के नामों से परिचित होते हैं और वियोग की भावना का अनुभव करते हुए अत्यन्त सन्तप्त हो जाते हैं। संयोग के लिए विशेष प्रयत्न दमयन्ती की ओर से हुए हैं; परन्तु भारतीय नारी की लज्जाशीलता को दृष्टि में रख कर कवि ने स्वयंवर के समाज-स्वीकृत आयोजन को माध्यम बना दिया है। प्रेम की उत्कटता के उपरान्त भी नल संयत बना है। वह बिना ननु नच किए देवों का दौत्यकर्म निभाने के लिए भी तैयार हो जाता है। दमयन्ती तूष्णीभाव का आश्रय लेकर वेदना को सहन करने की दृढ़ता दिखाती है। कवि ने श्रृंगार की उत्कटता का वर्णन करते हुए भी प्रेम को समाज-सापेक्ष बनाने का सफल प्रयास किया है। विषम परिस्थितियों में खरा उतरने वाला प्रेम ही जीवन-यात्रा का पाथेय बनता है।
गूढ शृंगारिक भावों की व्यंजना करने के लिए कवि ने अपनी श्लेषबंधता की रुचि का सहारा लिया है। श्लेष द्वारा वह अनायास ही मानसिक और शारीरिक प्रेम के एकान्त क्षणों की व्याख्या कर देता है और श्लिष्ट शब्द द्वारा संकेतित दूसरे अर्थ की सन्निधि के कारण ऐसे वर्णनों को अश्लील भी नहीं होने देता। इसे कवि की बहुत बड़ी सफलता मानना चाहिए।
यद्यपि कवि का मुख्य उद्देश्य श्रृंगार-वर्णन ही है परन्तु प्रासंगिक रूप से उसने अन्य रसों का भी चित्रण किया है।
वात्सल्य-वर्णन के लिए कवि ने प्रसंग कल्पित कर लिया है। वात्सल्य की व्यंजना वीरसेन के द्वारा नल को राज्य देकर वन को जाते समय कहे गए वचनों से होती है। वात्सल्य का वियोगपक्ष पिता के वनगमन के उपरान्त नल द्वारा अनुभूत भावनाओं में दिखाई देता है
तत्तातस्य कृतादरस्य रभसादाह्वाननं दूरतस्तच्चाङ्के विनिवेश्य बाहुयुगलेनाश्लिष्य सम्भाषणम्। ताम्बूलं च तदर्धचर्वितमतिप्रेम्णा मुखेनार्पितं,
पाषाणोपम हा कृतघ्नहृदय स्मृत्वा न किं दीर्यसे॥ ४/३१ संतान के अभाव द्वारा हृद्गत वात्सल्यभाव की व्यंजना कराने में भी कवि को सफलता मिली है। प्रियंगुमंजरी के मन में संतान के अभाव की भावना पैदा कर के और इस प्रकार उसके अन्तस्थ वात्सल्य को प्रस्फुटित करने में बन्दरी और उसका बच्चा ही कारण बन गया। यह यहां उद्दीपन बन गया है। आगे नि:संतान दम्पती के वात्सल्य के आलम्बन दमयन्ती को श्रृंगार रस का आधार बना दिया गया है
'चिरादुचिताश्रयलाभमुदितमनसा स्फूर्जितमिव शृङ्गाररसेन।' स्वाभावोक्ति के रूप में दमयन्ती की बाल-क्रीड़ा का वर्णन भी मिलता है जो वात्सल्य के उद्दीपन के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
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