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दमयन्तीचम्पू में रस-चित्रण दमयन्तीचम्पू एक शृंगारिक रचना है। यह एक श्लेषबंधयुक्त रचना है। प्रत्यक्षर श्लेषमयी रचना करने का संकल्प कर के सुबंधु ने वासवदत्ता का निर्माण किया था, जिसने बाणभट्ट के अनुसार सभी कवियों का दर्प दलन कर दिया-कवीनामगलद् दर्पो नूनं वासवदत्तया परन्तु इस क्षेत्र में त्रिविकम भट्ट ने सुबन्धु को भी पराजित कर दिया। अलंकृति की ओर अभिरुचि ने त्रिविकम भट्ट को नीरस नहीं बनाया। उन्होंने पद-विन्यास की मंजुलता का सदैव ध्यान रखा और अप्रचलित शब्दों के प्रयोग से स्वयं को बचाया जिससे कहीं रस परिपाक में भाषा बाधक न बन जाए। चमत्कार प्रियता की ओर आकृष्ट हो जाना तो युग के प्रभाव का द्योतक माना जा सकता है; परन्तु यह कवि की कुशलता का ही परिणाम है कि उसकी रचना अपनी आत्मा-रस से पृथक् नहीं हुई और उसमें सर्वत्र जीवन बना रहा।
औचित्य का अभाव ही रस-भंग का कारण होता है-अनौचित्यादृते नान्यद्रसभंगस्य कारणम्। अन्यत्र कहा जा चुका है कि कवि ने औचित्य का ध्यान सर्वत्र रखा है। नल और दमयन्ती के मन में सहज रूप में उगे हुए प्रेमांकुर को धीरे-धीरे विकसित होते हुए दिखाना दमयन्तीकथाचम्पू का उद्देश्य है।
प्रेमोद्दीपन के लिए कवि ने कई स्वाभाविक घटनाओं की कल्पना की है, यथा- चक्रवाकचक्रवाकी की प्रेमक्रीड़ा, शबर-दम्पतियों की कामकेलि, दूतों द्वारा लाए गए संदेश आदि।
प्रेम-वर्णन की काव्य में चार प्रमुख प्रणालियाँ प्रचलित हैं१. विवाह के बाद विकसित होकर जीवन के विकट से विकट पथ में पाथेय बनने वाले प्रेम
का वर्णन वाल्मीकि के आदिकाव्य में हुआ है। २.. दूसरे प्रकार का प्रेम विवाह के पूर्व होता है। विवाह उसी का परिणाम होता है। संसार के विस्तृत क्षेत्र में कहीं स्त्री और पुरुष मिलते हैं, एक-दूसरे की ओर आकृष्ट होते हैं और अंत में दाम्पत्य बंधन में बंध जाते हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार पुरुष ही स्त्री को पाने के लिए प्रयत्नशील होता है। यद्यपि मिलनेच्छा नारी में भी होती है; परन्तु लज्जावश वह व्यक्त करने में कठिनाई अनुभव करती है। अभिज्ञानशाकुन्तल, विक्रमोर्वशीय आदि में ऐसे ही
प्रेम का वर्णन है। कुमारसम्भव में प्रयत्न पार्वती की ओर से प्रारम्भ होता है। ३. तीसरे प्रकार के प्रेम का उदय राजाओं के अन्त:पुर, रंगोद्यान आदि में होता है। इसमें विलासिता प्रेम से अधिक होती है। मालविकाग्निमित्र, प्रियदर्शिका, कर्पूरमञ्जरी आदि
का प्रेम वर्णन ऐसा ही है। ४. चतुर्थ प्रकार का प्रेम, गुणश्रवण, चित्रदर्शन, स्वप्नदर्शन आदि से बैठे बिठाए होता है
और नायक या नायिका को संयोग के लिए प्रयत्नशील बनाता है।
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