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________________ ३० प्रेम पर विश्वास रखने के लिए कहा। उसके अनुसार क्वचिदपि कार्यारंभेऽकल्पः कल्याणभाजनं भवति । न तु पुनरधिकविषादान्मन्दीकृतपौरुषः पुरुषः ॥ ८८ वह बड़ी बुद्धिमानी से राजा का मन एक विषय से दूसरे कार्य में लगा दिया करता था । श्रुतशील के चरित्र का नल के चरित्र के विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्व है । वीरसेन नल का पिता है। वह अत्यन्त दयालु प्रकृति का है। समर में उसकी शूरता अप्रतिम रहती आई है। उसकी विशाल वाहिनी उसके व्यक्तित्व से प्रभावित होने से ही सुसंगठित थी । नारियों के प्रति शृंगार प्रदर्शित करना, वैरियों के प्रति वीरता प्रदर्शित करना, परस्त्री को अग्राह्य मानना, द्वेषियों के प्रति क्रोध प्रकट करना, शरणागतों पर दया दिखलाना उसके प्रमुख गुण हैं। उसकी पत्नी अनुपम रूप वाली रूपवती थी। दोनों ने शिव की आराधना करके परम तेजस्वी संतान को प्राप्त किया। इसका नाम उन्होंने नल रखा। नल के जन्म के समय राजा को अतीव आनन्द हुआ । उसने प्रभूत दान द्वारा अपने मन के आह्लाद को व्यक्त किया । नल के समझदार हो जाने पर अपनी वृद्धावस्था को ध्यान में रखते हुए विरक्ति का अनुभव करके उसने नल से कहा Jain Education International एताः प्राप्य परोपकारविधिना नीताः श्रियः श्लाघ्यतामापूर्वापरसिन्धुसीनि च नृपाः स्वाज्ञां चिरं ग्राहिताः । भूभारक्षमदोर्युगेन भवता जाता वयं पुत्रिणस्तत्संप्रत्युचितं यदस्य वयसस्तत्कर्म कुर्मो वने ॥ ८९ वीरसेन ने तत्काल मंत्रियों, पुरोहितों आदि को बुलाकर नल का राज्याभिषेक कर दिया । उसके उल्लास का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि उसने पुत्र - स्नेह के कारण हाथ में स्वर्णदण्ड लेकर प्रतीहारी का कार्य सम्पन्न किया । अंत में हार्दिक प्रसन्नता के वातावरण में उसने पुत्र को गोद में बिठा लिया और स्नेह प्रदर्शित करके वन में प्रस्थान किया। वीरसेन के चले जाने पर नल अत्यन्त दुःखी हो गया। पिता के प्रति नल की श्रद्धा भावना का विकास दिखाने के लिए ही नल - चम्पू में वीरसेन के चरित्र को चित्रित किया गया है । वीरसेन के चरित्र में प्रवृत्ति और निवृत्ति का सुन्दर समन्वय हुआ है। दमनक मुनि दिव्यलोक वासी मुनि दमनक शिव की आज्ञानुसार नल और प्रियंगुमंजरी पर कृपा करने के लिए सूर्यमण्डल से उतर कर आए थे । वे अत्यन्त तेजस्वी और करुणाभावोपेत थे । वे विष्णु और शिव के भक्त थे । वे अपर विष्णु, शंकर, बुद्ध या महावीर ही थे। सौंदर्य में वे कनकगिरि के समान For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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