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________________ और गुणों को अर्जित करने का उपदेश दिया। उसने कलाओं का अभ्यास करने, जड़ता को त्यागने, मुखरता छोड़ने, स्वभाव से मधुर बनने, विपरीत आचरण को त्यागने तथा स्त्री और श्री का विश्वास न करने का भी उपदेश दिया। लक्ष्मी का उपयोग दान और उपभोग के माध्यम से करना चाहिए। लोभवृत्ति को त्याग देना चाहिए। प्रजापालन राजा का प्रमुख कर्तव्य है। प्रजापालक क्षत्रिय पापों में लिप्त नहीं होता। समृद्धि पाकर गुणों का द्वेषी नहीं बनना चाहिए। उसने कहा तथा भव यथा तात त्रैलोक्योदरदर्पणे। विशेषैर्भूषितस्तैस्तैर्नित्यमात्मानमीक्षसे॥४ कवि ने सालंकायन को 'वाचस्पतिसम' कहा है। वीरसेन ने सालंकायन की वाणी को पदे पदेऽर्थसमर्था मृद्वयो मृष्टाः श्लिष्टाश्च वाचः कहा है। वीरसेन के अनुसार उत्तम मंत्री का कार्य है संग्रहं नाकुलीनस्य सर्पस्येव करोति यः। स एव श्लाघ्यते मंत्री सम्यग्गारुडिको यथा॥५ सालंकायन ऐसा ही मंत्री था। उसने नल के राज्याभिषेक के समय स्वर्णदण्ड वाला छत्र धारण करके अपने मन के उत्साह को व्यक्त किया। वीरसेन के प्रति अनुरक्त सालंकायन ने अंत में वन जाते हुए वीरसेन का अनुगमन किया। श्रुतशील वीरसेन के मंत्री सालंकायन का पुत्र तथा नल का अभिन्न सखा था। वह राजनीति की किरणों के लिए इन्दु था। समस्त कलांकुर-कलाप का मूल था। पुरुषोचित गुणों का सागर था। राजलक्ष्मी रूप हस्तिनी के बांधने का आलान था। वह समस्त श्रुतियों, शास्त्रों और शासनविद्याओं का प्रशस्ति स्तम्भ, पुण्यकर्मों के अंकुरों का वटवृक्ष और समस्त सुन्दर व्यवहार रूपी रत्नों का आकर था। सुख और दुःख दोनों में वह दर्पण की तरह प्रांजल था। वह नल से स्वाभाविक प्रीति रखने वाला, पवित्र और सत्य से पवित्र वाणी का उच्चारण करने वाला था। नल के लिए तो वह जीवन के समान ही था, प्राणों के समान था, हृदय के समान था और शरीर से भिन्न होने पर भी दूसरी आत्मा के समान ही था । वह नल का मित्र, मंत्री, प्रिय, सुहृत्-क्या नहीं था मित्रं च मंत्री च सुहृत्प्रियश्च विद्यावयःशीलगुणैः समानः। बभूव भूपस्य स तस्य विप्रो विश्वंभराभारसहः सहायः॥ नल ने राज्य का सारा भार श्रुतशील पर ही डाल दिया था। श्रुतशील नल का मंत्री से अधिक मित्र था। वह छाया की तरह नल के साथ रहता था। स्वयंवर में जाते समय मार्ग में खिन्न और विरह वेदना से ग्रस्त अपने मित्र के मन को उसने विविध प्रकार से बहलाया। देवताओं द्वारा दूत बनने के लिए कहने पर श्रुतशील ने उसे देवाज्ञा मानने की उचित सलाह दी और दमयन्ती के दृढ़ Jain Education International For Personal &.Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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