SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर आदि देवताओं का वह बहुत ही आदरपूर्वक स्वागत करता है और स्वयं लाकर उन्हें स्वर्णसिंहासन पर बिठाता है । वह स्वयं को कीर्तनीय श्रेयों का भाजन समझता है५३। देवों ने उसे ‘वैदग्ध्यविशेषोक्तिकोविद' मानकर दूत बनाना चाहा । ' इतः व्याघ्र इतस्तटी, इतो दवाग्निरितो दस्यवः, इतो दण्दशूक इतोप्यन्धकूपः ' यह प्रतिक्रिया हुई सर्वप्रथम नल पर। वह न तो अविनयी हो सकता था और न देवाज्ञा का उल्लंघन करने में समर्थ था । उसके लिए'अनुच्छ्वासविरामं मरणम्, अमोहं मूर्च्छनम्, अरोगमंगव्यथनम्, अशल्यप्रवेशमन्तःशूलं, अदारिद्र्यो निद्राविघात: ' की स्थिति उत्पन्न हो गयी। अंत में श्रुतशील की सलाह से उसमें नए साहस और अनुराग का उदय हुआ । मार्ग में वार्तिक से दमयन्ती का पत्र पाकर वह दमयन्ती को देखने के लिए व्याकुल हो गया और पक्षियों की तरह पँखयुक्त होकर उड़ने की कामना करने लगा ५४ । आगे उसे दमयन्ती प्रेषित किन्नरमिथुन ने दमयन्ती की अँगूठी प्रदान की और महीन शिल्कवस्त्रों का जोड़ा तथा कर्णभूषण दिए । राजा ने मुद्रिका को प्रपंचमात्र व वस्त्रों को पुनरुक्ति मात्र समझा। वह तो स्वयं तीव्र प्रेमवेदना का अनुभव कर रहा था । किन्नरों ने उसकी प्रेमाग्नि को और भी प्रज्वलित कर दिया। कुण्डिनपुर पहुँचने पर उसने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे देव- मंदिरों में प्रवेश न करें और मुनियों की कुटियाओं को हानि न पहुँचावें । ५५ उसकी सेना अत्यन्त अनुशासित थी । नल आगमन के अवसर पर कुण्डिननगर में उत्सव मनाया गया। भीम से मिलन में नल की शालीनता प्रकट होती है। उसे भाग्य अविश्वस्त बनाता है; परन्तु वह पुरुषार्थी है, पुरुषार्थ में उसे विश्वास है का नाम तत्र चिन्ता प्रभवति पुरुषस्य पौरुषं यत्र । वाङ्मनसयोरविषये विधौ च चिन्तान्तरं किमिह ॥ ५६ उसने बड़े ही कौशल से देवों का दूत कर्म निभाया। उसके शील की अनश्लीलता, अनाहार्य - औदार्य, अवंचक वचन, अदैन्य दान की सभी प्रशंसा करते थे । यह जानकर उसे हार्दिक वेदना हुई कि दमयन्ती उसके दौत्यकर्म के विषय में सुनकर विवर्ण हो गई है। फिर भी वह दमयन्ती के सम्मुख जा पहुँचा । दमयन्ती उसे देखकर विस्मय - विमुग्ध हो गई। दमयन्ती ने राजा के विषय में इस प्रकार अनुभव किया Jain Education International धन्या काप्युपरोधिताद्रितनया यस्यास्त्वमाह्लादयन् मुक्ताहार इव प्रसारितभुजः कंठे विलोठिष्यसि । धातस्तात तवापि धन्यममुना सृष्टेन मन्ये श्रमं मातर्मेदिनि वन्द्यसे किमपरं यस्यास्तवायं पतिः ॥ ५७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy