________________
नल के सौन्दर्य का वर्णन कवि ने इन शब्दों में किया है
आस्यश्री: सन्निभेन्दोः समदवृषककुबंधुरः स्कन्धसंधिः, स्निग्धा रुक्कुन्तलानामनुहरति दृशोर्द्वद्वमिन्दीवरस्य। स्थानं वक्षोऽपि लक्ष्याः , स्पृशति भुजयुगं जानुनी, वृत्तरम्ये,
जंघे, क्षामोऽवलग्नः, किमु निषधपतेः श्लाघनीयं न तस्य ॥४९ सालंकायन को प्रणाम करने में उसकी बालसुलभ उद्दण्डता व्यक्त हुई है। सालंकायन से नीति और धर्म का उपदेश सुनकर वह ऐसी भूल आगे न करने की निश्चितता को प्राप्त हुआ। उसके लोकोत्तर प्रभाव को देखकर ही दिव्यलोक से मुनियों और देवताओं ने भी राज्याभिषेक के समय उसे आशीर्वाद दिया। पिता के वन में प्रस्थान करने पर वह अत्यन्त दुःखी हो गया। उसके भाव इन शब्दों में द्रष्टव्य हैं
तत्तातस्य कृतादरस्य रभसादाह्वाननं दूरतस्तच्चांके विनिवेश्य बाहुयुगलेनाश्लिष्य संभाषणम्। ताम्बूलं च तदर्धचर्वितमतिप्रेम्णा मुखेनार्पितं
पाषाणोपम हा कृतघ्न हृदय स्मृत्वा न किं दीर्यसे॥५० हंस के शब्दों में उसके गुणों के सामने वंशी और वीणा की ध्वनि भी मधुर नहीं लगती, संभाषण में सरस्वती भी तत्त्वहीन प्रतीत होती है, जिससे परिचय पाकर अमृत भी प्रशंसनीय नहीं रह जाता और उसके साथ रहने पर चन्द्रमा भी उतना आनन्द नहीं दे पाता। उसके गुणों का आतिशय्य हंस ने इस प्रकार प्रकट किया
भवति यदि सहस्त्रं वाक्पटूनां मुखानां निरुपममवधानं जीवितं चापि दीर्घम्। कमलमुखि तथापि मापतेस्तस्य कर्तुं
सकलगुणविचारः शक्यते वा न वेति॥५१ हंस के लौट कर आने पर वह बड़ी उत्कंठा से दमयन्ती के विषय में पूछने लगा। हंस से दमयन्ती की रत्नावली पाकर वह प्रेमोत्ताप से जल उठा। उसने उसे ऐसे पहन लिया जैसे हृदयस्थ दमयन्ती को दिखाना चाह रहा हो। हंस के साथ दमयन्ती के गुणों का कीर्तन करते हुए उसका सारा दिन व्यतीत हो जाता था। हंस को विदा करने के उपरान्त उसकी प्रेमवेदना अत्यधिक बढ़ गई। उसे दक्षिण दिशा अमृतपंक से लिपी हुई और आनंद-कन्दल से स्पृष्ट लगती थी५२ ।
स्वयंवर के लिए निमंत्रित करने के लिये आने वाले दूत को उसने पुरस्कृत करके विदा किया और शीघ्रतापूर्वक वह विदर्भ की ओर चल दिया। उसकी दक्षिण यात्रा का वर्णन कवि ने बड़ी ही रुचिपूर्वक किया है। मार्ग में वन्य प्रदेश को देख कर उसकी प्रेम-वेदना और तीव्र होती जाती है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org