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उच्छृंखल वृत्ति को वह तत्काल सालंकायन के उपदेश से संयत करने की ओर ध्यान दिए बिना नहीं रहता। इन सब बातों के आधार पर कहा जा सकता है कि कवि की दृष्टि औचित्य पर भी केन्द्रित रही है।
पात्र एवं चरित्र चित्रण
त्रिविक्रम ने दमयन्तीचम्पू में छोटे से कथानक का विस्तार से वर्णन किया है। कथा को विस्तार देने में कवि ने अतिरिक्त पात्रों का समावेश करने का सहारा भी लिया है। इसीलिए इतने छोटे कथानक में भी पात्रों की संख्या अधिक हो गई है; परन्तु सारी कथा नल और दमयन्ती को ही केन्द्र बनाकर गति करती है । इनका चरित्र दमयन्तीचम्पू में विस्तार से वर्णित अवश्य है; परन्तु चरित्र का विकास इनका भी नहीं दिखाया गया है । केवल चरित्र के थोड़े से अंश को ही आकस्मिक रूप से घटित घटनाओं के माध्यम से चित्रित किया गया है।
नल
दमयन्तीचम्पू का नायके नल है । यह धीरललित नायक है। चम्पूकार ने इसके चरित्र के कतिपय विशिष्ट गुणों का बड़े ही विस्तार से चित्रण किया है। चम्पूकार स्वयं नल को धीरोदात्त नायक के रूप में ही प्रस्तुत करना चाहता है । ३६ घटनात्मक आधार पर तो वह ऐसा नहीं कर सका; परन्तु उसने स्वयं उसके उदात्त गुणों की ओर संकेत अवश्य किया है। लेखक के अनुसार नल प्रतापराजहंस था। सारी पृथिवी पर उसकी विजय के सूचक कीर्तिस्तम्भ खड़े थे, वह अनेक प्रकार से युद्ध करने में समर्थ था, ब्राह्मणों को प्रभूत दान देता था, लक्ष्मी का आश्रय स्थान था, शत्रु उसके नाम से ही काँपते थे, न्याय करने में वह दक्ष था और दूसरों के कल्याण में लीन रहता था। उसे कवि ने वसिष्ठ, जन्मेजय, परशुराम, राम आदि के समान बताया है ३७ । वह सौन्दर्य सम्पत्ति से युक्त था, हिमाचल के समान पुण्यभागी, अग्रगण्य रथी था, याचकों के लिए वह चिन्तामणि था, वह आदर्श अध्यापक, दार्शनिक, शौर्योपदेशक और विद्वानों में श्रेष्ठ था३८ ।
नल की भुजाएँ समस्त भुमण्डल का भार धारण करने में समर्थ थीं। दुष्टों के लिए तो वह दावाग्नि ही था ३९ । उसके गुण चन्द्र, कुन्द या कुमुद से निर्मल थे, लोगों के कानों के प्रिय अतिथि थे और विधिरचित ब्रह्माण्ड में समा नहीं पा रहे थे । उसके राज्य में सब आनन्दित थे । वह तो दूसरा लोकपाल ही था । वह देवताओं से भी बढ़कर था ।
नल निष्पाप हृदय वाला था । वह परोपकारी था और उसका दान कोटिगुण युक्त था । उसका मन भ्रम से रहित था । कवि के अनुसार हिमाचल भी गुणों में नल की समानता नहीं कर सकता
था
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सदाहंसाकुलं बिभ्रन्मानसं प्रचलज्जलम् ।
भूभृन्नाथोऽपि नो याति यस्य साम्यं हिमाचलः ॥४१
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