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नलोपाख्यान अत्यन्त प्राचीन है और इस पर आधारित ऐतिहासिक महाकाव्य, नाटक, चम्पू आदि विविध साहित्यिक विधाओं को देखा जा सकता है। पुराणों में नल की कथा आई है। महाभारत और वाल्मीकि रामायण में भी नल-दमयन्ती के आदर्श प्रेम की ओर संकेत किया गया है । नल की कथा पर आधारित श्रीहर्ष का नैषधीयचरितम्, लक्ष्मीधर का नलवर्णन काव्य, श्रीनिवास दीक्षित का नैषधानन्द आदि प्रमुख रचनाएँ हैं। नल - विलास, दमयन्ती कथा, नलायनम् आदि अनेक जैन कवियों की कथा कृतियाँ भी मिलती हैं।
बृहत्कथामञ्जरी और कथासरित्सागर में भी नल - कथा का वर्णन है । गुणाढ्य ने बृहत्कथा में अवश्य ही विस्तार से इसका वर्णन किया होगा ।
दमयन्तीचम्पू में यद्यपि नल की यह सुपरिचित कथा अधूरी ही आई है, परन्तु कवि ने कथा में बड़े ही कौशल से नल-दमयन्ती के विवाह और सुखी दाम्पत्य-जीवन की ओर संकेत कर दिया है । यदि वह विवाह प्रसंग तक वर्णन कर के कथानक को सुखान्त बनाने का अवसर पाता तो एक तो व्यंजना का यह चमत्कार दिखाई नहीं पड़ता और नल के जीवन में आई हुई आगे की विपत्ति का वर्णन किये बिना फिर भी कथा अधूरी ही रह जाती है। संभव है शृंगार रस के चितेरे इस कवि को प्रेमियों के जीवन की कठिनाइयों को चित्रित कर के प्रेम के अतिरिक्त अन्य भाव पाठकों में जगाने में रुचि ही न रही हो और इसीलिए कथानक को औत्सुक्य के चरम क्षण में समाप्त कर के विराम ले लिया हो ।
दमयन्तीचम्पू में कवि ने दो तरह से अपने अभीष्ट प्रेमभाव को जगाने की चेष्टा की हैप्रथमत: दमयन्ती के द्वारा देवताओं के संदेश को ठुकरा देने और इस प्रकार समृद्धि और स्वर्गसुख से भी ऊपर अनुराग की प्रतिष्ठा कर दिये जाने से यह संकेत मिल जाता है कि वह अपने प्रेममार्ग में बड़े से बड़े प्रलोभन को भी निराकृत कर सकती है, साधारण विपत्ति की तो बात ही क्या ? दूसरी ओर अन्तिम श्लोक से व्यक्त होता है कि प्रेम-वेदना से ग्रस्त नल ने विपत्ति की रात्रि को शिव की कृपा से व्यतीत कर ली
इति विविधवितर्कावेशविध्वस्तनिद्रः,
सजलजडिममीलत्पक्ष्मचक्षुर्दधानः । हरचरणसरोज-द्वन्द्वमाधाय चित्ते
नृपतिरुभयसङ्गीस त्रियामामनैषीत् ।
देवकार्य उसने सम्पन्न किया और मानसिक द्वन्द्व की स्थिति समाप्त हो गई। अब वह एकनिष्ठ होकर दमयन्ती से प्रेम कर सकता था । इस दुविधा की समाप्ति ही उसका रात्रि-व्यतीत करना है । प्रलोभनों से ऊपर दमयन्ती का नल - विषयक अनुराग और दुविधा से मुक्त कामदेव द्वारा अतिशय उद्दीप्त नल के शील-गर्भित प्रेम का परिणाम क्या हो सकता है - यह सोचना पाठक का काम है। कवि तो पाठक को उस मनोऽवस्थिति में पहुँचा कर, जिसमें वह अनायास ही प्रेम की
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