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________________ १८ नल ने राज्यादि से अधिक भीम के दर्शन को ही महत्त्व दिया और अतिशय बहुमान पूर्वक उसे लौटाया। दमयन्ती ने भी अनेक उपहार अपनी दासियों के साथ भेजे। नल ने उन्हें स्वीकार कर लिया और दासियों को अनेक उपहार देकर लौटाया। दोपहर में दमयन्ती ने नल और उसके साथियों के लिए सुस्वाद भोजन बनाकर भेजा। प्रिया के हाथ के भोजन से नल तृप्त हो गया। थोड़ी देर में दमयन्ती के भेजे हुए पहले दूत ने आकर बताया कि 'दमयन्ती आप में ही अनुरक्त है। जब उसने सुना कि आप देवताओं के दूत बन कर उसे देवों का वरण करने के लिए सम्मति देना चाहते हैं, तभी से वह विषण्ण होकर मौन हो गई है।' दमयन्ती की मन:स्थिति के विषय में जानकर नल चिन्तातुर हो गया। दूसरे दिन उसकी कामवेदना और अधिक तीव्र हो गई। फिर भी उसने देवताओं के संदेश को दमयन्ती तक पहुँचाने का निश्चय कर लिया। इन्द्र द्वारा प्रदत्त शक्ति से वह राजभवन में दमयन्ती के कक्ष में जा पहुँचा। वहाँ उसे कोई नहीं देख पा रहा था। बाद में उसने स्वयं को प्रकट कर दिया। अन्तःपुर में आये हुए नल को देखकर दमयन्ती आश्चर्य में पड़ गई। नल को आसन प्रदान किया गया। नल और दमयन्ती एक दूसरे को देख कर लज्जित हो रहे थे और मन ही मन सौन्दर्य की प्रशंसा कर रहे थे। पहले तो नल कामसन्तप्त होकर दूत-कार्य को भूल गया; किन्तु तत्काल उसने मन को दृढ़ कर लिया और इन्द्र की आज्ञा दमयन्ती को बतला दी। दमयन्ती ने संकेत से बतलाया कि वह गुरुजन और देवताओं का आदर करती हैं; परन्तु उनसे डरती है। नल ने फिर आग्रह किया कि वह इन्द्र आदि किसी अमृतभोजी देवता का वरण कर के स्वर्ग सुख का उपभोग करे। नल के इस कथन से दमयन्ती मर्माहत हो गई। उसका मुख सूख गया। आँखें सजल हो गई। उसकी इस दशा को देख कर उसकी सखी ने उसके निर्णय को स्पष्ट कर दिया कि अनुराग गुण विशेष का कारण नहीं होता। कोई भी किसी के चित्त को चुरा सकता है। लोकपालों का आदेश कुछ भी हो। दमयन्ती उनके वैभव से आकृष्ट नहीं हो सकती। नल सखी के मुख से दमयन्ती का निश्चय जान कर अन्त:पुर में अधिक देर तक ठहरना उचित न समझ कर वहाँ से अपने शिविर में लौट आया। नल दमयन्ती के रूप को देख कर अभिभूत हो गया था। व्यग्र मनोदशा में उसने बड़ी कठिनाई से शिव के चरणों का ध्यान करते हुए रात्रि व्यतीत की। कथा और उसका औचित्य दमयन्तीकथाचम्पू के कथानक को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि कथा अधूरी रह गई है। अधूरी रहने का कारण कवि को मिले हुए सरस्वती के वरदान की समाप्ति बताया जाता है। इस किंवदन्ती पर विश्वास न किया जाय तो अन्य कारण भी हो सकते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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