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को विस्तार ही दिया है। कहीं नीरसता नहीं आ पाई है। पद्य और गद्य का समान अधिकार पूर्वक प्रयोग कवि की सर्वातिशायिनी प्रतिभा को घोषित करता है ।
वर्ण्य-वस्तु सीमित होते हुए भी कवि ने उसे विस्तार देकर महाकाव्य का रूप दे दिया है। महाकाव्य के कई लक्षण इस पर घटित होते हैं । सर्गबद्ध होना महाकाव्य का लक्षण है, परन्तु आदि-काव्य काण्डों में विभाजित है । इस तरह उच्छ्वासों में विभाजित होने पर भी दमयन्तीचम्पू की महाकाव्यता पर कोई आँच नहीं आती। आदि-काव्य रामायण में ६ ही काण्ड बताये जाते हैं । दमयन्तीचम्पू में ७ उच्छ्वास हैं । इसमें नायक नल और नायिका दमयन्ती के जीवन के एक खण्ड काही चित्र है, परन्तु विस्तार की दृष्टि से इसे खण्ड काव्य के स्थान पर महाकाव्य की ओर ही झुका हुआ माना जाना चाहिए। इसमें कथा की धारा अविच्छिन्न-रूष से चलती रहती है। चम्पूकाव्यकार भोज ने चम्पूरामायण में चम्पूकाव्य को प्रबन्ध काव्य ही माना है । ३२ दमयन्तीचम्पू की कथा-वस्तु एक घटनाश्रित है। इसमें कोई प्रासङ्गिक कथा नहीं आई है। वर्णन में कौतूहल उत्पन्न करने के लिए चक्रवाक-क्रीडा, शबरियों का नर्मदा स्नान आदि वर्णित है । ये वर्णन अवान्तर-कथा का रूप नहीं धारण कर पाते । औत्सुक्य - वर्द्धन के लिए कवि ने घटना क्रम के अन्तर्गत ही वर्णन - वैचित्र्य द्वारा व्यवस्था की है।
दमयन्ती - चम्पू की वर्णन शैली अन्य पुरुषात्मक है । ३३ इसका गद्यभाग पद्यभाग से अधिक अलंकृत हैं। कदाचित् गद्यकारों की इसी अभिरुचि को ध्यान में रखकर ‘गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति' उक्ति प्रचारित हुई हो ।
दमयन्ती - चम्पू का अन्त आकस्मिक हुआ है । इसीलिए इसे अपूर्ण माना जाता है। यदि यह अपने इसी रूप में पूर्ण हो तो इसके अन्त को कलात्मक साङ्केतिकता लिए हुए माना जाना चाहिए। इसका नायक धीरललित है। फलागम की स्थिति तक पहुँचने से पहले ही कथा की समाप्ति गई है। इससे पता चलता है कि कवि को अपनी कृति का उद्देश्य फलागम की स्थिति की व्यञ्जना करना मात्र अभीष्ट था । कवि ने संदेशवाहक हंस, पथिक, किन्नरदम्पती आदि की क कल्पना कर के नाटक में संवादों द्वारा नाटकीयता उत्पन्न करने की चेष्टा भी की है। इसमें कविवंशानुकीर्त्तन, खलनिन्दा, सज्जनप्रशंसा आदि के वर्णन पर गद्यकाव्यों का प्रभाव भी पड़ा ज्ञात होता है। यद्यपि यह गद्य की दृष्टि से गद्य-काव्य की ओर झुका हुआ है, परन्तु समग्र दृष्टि से इसमें महाकाव्य की ओर झुकाव देखा जा सकता है।
त्रिविक्रम संस्कृत के सर्वप्रधान श्लेष - कवि हैं। दमयन्तीचम्पू में जैसे सरस तथा प्रसन्न श्लेष पाये जाते हैं, उतने रमणीय तथा चमत्कारजनक श्लेष इतनी अधिक मात्रा में अन्यत्र समुपलब्ध नहीं होते। इसमें सभंग-श्लेष का प्रयोग है। इसी शैली में कवि ने सुन्दर प्रकृति-वर्णन किया है। प्रकृति श्रृंगार रस की सहचारिणी है - यह यहीं सिद्ध होता है ।
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सारे काव्य में कवि का प्रौढ- पाण्डित्य प्रकट हुआ है । कवि का भाषा पर असाधारण
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