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अवसर गद्य में भी उतना ही होता है जितना पद्य में । गद्य की इसी क्षमता के कारण उसे कवियों की कसौटी कहा गया है-'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति'। पद्य की संगीतात्मकता न होते हुए भी गद्य को सौन्दर्यानुभूति के क्षेत्र में वही कार्य करना होता है जो पद्य को। गद्य की यही विशेषता उसे पद्य से अधिक कठिन बना देती है !
___ पद्य की रमणीयता पद में निहित होती है तो गद्य में वह वाक्यविन्यास से आती है। परिपक्व वाक्यरचना के लिए सुकवि को भी अभ्यास करना पड़ता है-'सततमभ्यासवशत: सुकवेः वाक्यं पाकमायाति। पदनिवेशनिष्कम्पना पाकः।१८ शाब्दी अर्थनिष्ठा ही वाक्य को परिपक्व बनाती है।
गद्य छन्द जैसी लय को झलकाता हो तो उसे वृत्तगन्धि कहते हैं। आधुनिक कविता इसका उदाहरण है जो गद्यप्राय होते हुए भी लय और प्रवाह की दृष्टि से पद्यबद्धकविता की छटा उपस्थित करती है। अगर ऐसी लय न हो तो साधारण गद्य वृत्तगन्धोज्झित कहा जाता है। काव्यात्मक गद्य की दो शैलियाँ होती हैं१. चूर्णक-जिसमें साधारण समास युक्त शैली होती है। सरलता और अर्द्धगम्भीरता इसके प्रमुख गुण हैं। २. उत्कलिकाप्राय-इस प्रकार के गद्य में दीर्घसमासयुक्त पदावली प्रयुक्त होती है। सुबन्धु, बाणभट्ट आदि गद्यकारों ने इसी शैली का प्रयोग अपने काव्य में किया है।
जहाँ गद्य होगा वहाँ प्रायः गद्य की एक या अधिक विशेषताएँ अवश्य मिल जाती हैं। चम्पूकाव्य के गद्य भाग में भी इन्हें देखा जा सकता है।
ऊपर कहा जा चुका है कि काव्य की एक विधा को अपनाने वाला कवि काव्य की अन्य विधाओं की ओर भी आकृष्ट होता है और चम्पूकाव्य इसी का परिणाम है। गद्य और पद्य का मिश्रित रूप होना तो उसका अत्यन्त स्थूल लक्षण है। वह प्रबन्ध काव्य या गद्यकाव्य की विविध विधाओं में से किसी का रूप धारण कर सकता है। नायक और वर्णन-शैली की दृष्टि से उसके स्वरूप का अवधारण किया जा सकता है। मिश्रित शैली रूपकों में भी होती है, परन्तु वे दृश्यकाव्य होने से चम्पूकाव्य की श्रेणी में नहीं आ सकते। इसी तरह मिश्रित शैली होना मात्र ही चम्पूकाव्य का लक्षण नहीं है। चम्पू के अतिरिक्त मिश्रशैली की अन्य रचनाएँ भी प्रसिद्ध हैं। यथाकरम्भक-इस प्रकार की रचना में विविध भाषाओं में प्रशस्ति होती है ।१९ साहित्यदर्पणकार 'प्रशस्तिरत्नावली' को करम्भक मानते हैं। विरुद-गद्य-पद्य-मिश्रित शैली में राजस्तुति विरुद२० कहलाती है। इसके उदाहरण स्वरूप कई विरुदावलियाँ देखी जा सकती हैं। घोषणा या जयघोषणा-सुमतीन्द्र कवि ने 'सुमतीन्द्रजयघोषणा' नामक अपनी कृति में शाहजी की जयघोषणा की है। कवि ने स्वयं जयघोषणा का लक्षण लिखा है :
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