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________________ धर्मों-दर्शन और श्रवण का पृथक्-पृथक् रूप से उपयोग करता है। तदनुसार ही उसकी कृति दर्शन-धर्मात्मिका और श्रवणधर्मात्किा बन जाती है। साहित्य- शास्त्रियों ने इनको काव्य की दृश्य और श्रव्य विद्या कहा है। दृश्य विद्या में पाठन-सामग्री के साथ गेय व अभिनेय सामग्री भी संयुक्त हाती है। श्रव्य विद्या में दृश्यानुभूति को भी कवि पाठन-सामग्री में प्रविष्ट करा देता है और दृश्य काव्य में जो आनन्द मञ्च पर अभिनय देखकर दर्शक लेता है उसे श्रव्य काव्य में कल्पना-जगत् में प्रत्यक्षीकरण करके लेता है। सौन्दर्यानुभूति की प्रक्रिया दोनों स्थानों पर समान होती है। काव्य के गद्य और पद्य ये दो भेद होते हैं। 'गद' धातु का सम्बन्ध बोलने से है। इसीलिए बोलने योग्य काव्याभिव्यक्ति गद्य कहलाती है। पद्य के अनुसार नृत्य में पादन्यास और अभिनय में पदन (गति) किया जा सकता है। पद्य शब्द गत्यर्थक ‘पद' धातु से निष्पन्न है। नाटक में प्रायः दोनों का सम्मिश्रण होता है, परन्तु प्रवृत्ति के अनुसार वह पद्य-प्रधान होता है। श्रव्य काव्य में भी पद्य और गद्य का मिश्रण हुआ, परन्तु उसमें प्रायः गद्य-प्रधानता रहती है। गद्य-प्रधान गद्य-पद्यमिश्रित रचना को साहित्यशास्त्र में चम्पूकाव्य कहा जाता है। चम्पू काव्य में पद्य का उपयोग नाटकीयता उत्पन्न करने के लिए होता है। __वर्णन-प्रक्रिया की दृष्टि से काव्य विशेष-बन्ध को स्वीकार करके प्रबन्ध काव्य बन जाता है। जिसके महाकाव्य और खण्डकाव्य दो भेद हो जाते हैं। बन्ध-रहित रचना मुक्तक कहलाती है। कवि ऐसे आख्यानकाव्यों की रचना भी करते रहते हैं, जिनका पाठ करने के साथ अभिनय और गान भी किया जा सकता है।१६ महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना विशेष परिश्रम करके आख्यानक काव्य के रूप में की है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि काव्य की एक विधा को अपनाने वाला कवि भी अन्य विधाओं के महत्त्व को स्वीकार करता हुआ उनकी विशेषताओं को अपनी कृति में समाविष्ट करने का प्रयत्न करता है। हिन्दी साहित्य में सन्त महाकवि तुलसीदास ने राम का गुणगान करने के लिए विविध काव्यशैलियों को अपनाकर दक्षता प्रकट की है। आधुनिक काल में मैथिलीशरण गुप्त और जयशंकर प्रसाद ने भी विविध शैलियों द्वारा अपने कवि-कौशल का परिचय दिया है। चम्पूकाव्य प्रायः इसी प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप विकसित हुआ है। चम्पूकाव्य जहाँ प्रवृत्ति के अनुसार गद्य-पद्य-मिश्रित काव्य है, वहाँ वर्णन-प्रक्रिया के अनुसार कभी खण्डकाव्य की और कभी महाकाव्य की स्थिति को अपनाता है। मुक्तक की स्वच्छन्दता उसमें नहीं होती है। प्रबन्ध काव्य के सभी बन्धों को स्वीकार कर के चलना चम्पूकाव्य की नियति है। इस रूप में चम्पूकाव्य से परवर्तीकाल में 'ख्याल' नामक काव्यविधा का विकास हुआ है। जीवन में सामान्यभावों की अभिव्यक्ति गद्य के माध्यम से की जाती है। इसलिए गद्य काव्य जीवन के अधिक समीप होता है। परन्तु सामान्य गद्य से काव्यात्मक गद्य भिन्न होता है। पद्य जैसी संवेदनशीलता गद्य में भी देखी जा सकती है। हृदयपक्ष की प्रबलता और कल्पना की उड़ान का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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