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पा सकूँ ऐसी शक्ति प्रदान करो।' पितृ-परम्परा से पूजित करुणामूर्ति सरस्वती ने उसे वर दिया-- 'जब तक तुम्हारे पिता नहीं लौटते, मैं तुम्हारे मुख में निवास करूँगी।'
वर की महिमा से राजसभा में त्रिविक्रम ने विपक्षी को पराजित कर दिया और राजा से पर्याप्त सम्मान प्राप्त किया। घर आकर उसने सोचा कि सरस्वती की कृपा उस पर पिता के लौटने तक ही रहेगी। अतएव तब तक किसी प्रबन्ध को लिख डाले। यह सोचकर उसने नल के चरित्र को गद्यपद्य में लिखना शुरु किया। सातवें उच्छ्वास की समाप्ति के दिन पिता के लौट आने पर उसके मुख की सरस्वती अन्तर्हित हो गई और इस प्रकार दमयन्तीचम्पू अपूर्ण रह गया।"
इस किंवदन्ती की प्रामाणिकता के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि त्रिविक्रम को दमयन्तीचम्पू की रचना में अत्यन्त सफलता मिली है, इसलिए लोगों में यह विश्वास जम गया था कि सरस्वती कृपा के बिना ऐसी उच्च कोटि की रचना संभव ही नहीं है। श्रीहर्ष के विषय में भी चिन्तामणि-मन्त्र द्वारा सरस्वती को प्रसन्न करने की बात प्रसिद्ध है। यह सचमुच आश्चर्य में डालने वाली बात है कि संस्कृत की उत्कृष्ट कृतियाँ'कुमारसम्भव, नैषधीयचरित, कादम्बरी, रसगङ्गाधर, दमयन्तीचम्पू आदि अपूर्ण ही हैं। इसके पीछे
क्या इस बात को मानना होगा कि संस्कृत के अत्यन्त सफल कृतिकार अपनी कृति को अपेक्षाकृत पूर्ण की ओर पहुँचाकर अपूर्ण छोड़ देते थे क्योंकि उनको विश्वास था कि उनकी रचना का इससे सम्मान कम नहीं होगा।१२
__ वस्तुत: ऐसा मानने में कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता। इन रचनाओं को अपूर्ण मानना ही कदाचित् भूल है। विद्युत् की तरह क्षिप्रगति से कथानक का आविष्कार और समापन रचना की कलात्मकता को व्यञ्जित करता है। जिनको कथा के तथ्यों से परिचित होना है वे पुराणादि में इन्हें पढ़ सकते हैं। कविकर्म पौराणिक-कथाओं का पुनराख्यान मात्र नहीं है। कथा में कलात्मकता का अभिनिवेश करने के लिए कवि उसमें यथोचित परिवर्तन करने के लिए स्वतन्त्र नहीं है, वह कथा में मार्मिक-स्थल को संवेदना जगाने का चरम-बिन्दु बनाकर कथा की साङ्केतिक इति भी कर सकता है। इसी दृष्टि से इन रचनाओं को समझना चाहिए और कलात्मक दृष्टिकोण से इन रचनाओं को पूर्ण मानना चाहिए। जैसा कि अन्यत्र कहा गया है-दमयन्तीचम्पू की कथा साङ्केतिकता लिए हुए अपनी दृष्टि से पूर्ण है। यद्यपि आपाततः यह कथा दुःखान्त प्रतीत होती है, परन्तु व्यञ्जना की दृष्टि से यह सुखान्त ही कही जा सकती है। कवि का काम तो पाठक को उस भावभूमि में पहुँचाना है जहाँ उसका निर्णय कवि की भावना से अनुकूलता प्राप्त कर ले। दमयन्तीचम्पूकार को इस दृष्टि से पूर्ण सफलता मिली है। नल की कथा तो सभी को विदित है। कवि का काम तो उन कठिनाइयों का उल्लेख करना है जो प्रेम के सीधे-सरल मार्ग तक में भी आ जाती है और इससे अधिक उस दृढ़ता का वर्णन करना है जो सच्चे प्रेमियों को प्रलोभनों और विपत्तियों में अविचलित बनने में कारण बनती है।
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