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इन प्रमाणों से यह तो विदित होता है कि त्रिविक्रम भट्ट के पूर्वपुरुषों की ख्याति वेदज्ञ और कर्मकाण्डी के रूप में रही है, परन्तु ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि वे राज्याश्रय में रहते थे। उसके वंशज अवश्य ही राज्याश्रय में रहे और सभी विद्वान् हुए । १३वीं शती ईस्वी के प्राकृत व्याकरण के प्रणेता त्रिविक्रम दमयन्तीचम्पूकार से कोई भिन्न व्यक्ति थे । '
त्रिविक्रम ने अपने पूर्ववर्ती गुणाढ्य और बाणभट्ट का उल्लेख किया है। इसी तरह धारेश्वर भोज ने सरस्वती-कण्ठाभरण में दमयन्तीचम्पू के छठे उच्छ्वास का श्लोक उद्धृत किया है। इससे यह निश्चित है कि त्रिविक्रम बाण के परवर्ती और महाराजा भोज के पूर्ववर्ती थे । इन्द्रराज (तृतीय) के समय (वि०सं० ९७२ ) से इस मान्यता में विरोध नहीं आता, अतः त्रिविक्रम भट्ट की ताम्रलेखों में सङ्केतित समयावधि को प्रामाणिक माना जा सकता है
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दमयन्तीचम्पूकार ने आर्यावर्त और निषध देश, विदर्भ और कुण्डिननगर का वर्णन बड़े ही विस्तार से किया है। इन दोनों प्रकार के वर्णनों की तुलना करने पर कवि की अभिरुचि विदर्भ में अधिक ज्ञात होती है जिसका उन्हें भली प्रकार से परिचय - ज्ञान होता है। इससे यह अनुमान लगाना उचित ज्ञात होता है कि त्रिविक्रम दक्षिण- भारत के विशेषत: विदर्भ-मण्डल के निवासी रहे होंगे। दक्षिण दिशा के मुखतिलक दक्षिण देश, वहाँ के श्रीपर्वत, काबेरी तीर, गन्धमादन पर्वत की भूमि, कुण्डिनंनगर, वरदा, पयोष्णी, महावराह मन्दिर आदि का त्रिविक्रम अत्यन्त आत्मीयतापूर्वक स्मरण करते हैं । ऐसी आत्मीयता अकारण नहीं हो सकती । पयोष्णी के वर्णन में उन्होंने अपनी कविकुशलता का चरम रूप प्रदर्शित किया है। इससे श्री कैलासपति त्रिपाठी ने यह निष्कर्ष उचित ही निकाला है कि वे पयोष्णी तट के निवासी होंगे । १०
त्रिविक्रम भट्ट ने दमयन्तीचम्पू में शिव और कार्तिकेय की उपासना की ओर विशेष पक्षपात दिखाया है। विदर्भ में स्वामी कार्तिकेय की उपासना प्रचलित होने से उन्हें कार्तिकेय के उपासक मानना भी उचित ज्ञात होता है । ११
त्रिविक्रम भट्ट के विषय में एक किंवदन्ती का उल्लेख भी मिलता है । वह दमयन्तीचम्पू के अपूर्ण रह जाने से सम्बद्ध है । वह इस प्रकार है
"किसी समय समस्त शास्त्रों के निष्णात देवादित्य नामक राजपण्डित थे । उनका लड़का त्रिविक्रम था । प्रारम्भ से ही उसने कुकर्म ही सीखे थे, किसी शास्त्र का अभ्यास नहीं किया था। एक समय किसी काम से देवादित्य दूसरे गाँव चले गये। तब उनकी अनुपस्थिति में एक अमर्षी विद्वान् राजा के पास आया और बोला- 'राजन् ! मेरे साथ किसी विद्वान् से शास्त्रार्थ कराइये, अन्यथा मुझे जयपत्र दीजिए।' राजा ने दूत भेजकर देवादित्य को बुलाया । देवादित्य के बाहर चले जाने की बात सुनकर राजा ने त्रिविक्रम को ही बुला लिया। त्रिविक्रम बड़ी चिन्ता में पड़ा। शास्त्रार्थ के नाम से वह घबराया। अन्ततः उसने सरस्वती की प्रार्थना की- ' माँ भारती, मुझ मूर्ख पर कृपा करो । यहाँ आये हुए महापण्डित से आज तुम्हारे भक्त का यश क्षीण न हो जाय। मैं उससे शास्त्रार्थ में विजय
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