________________
११८ ग्रन्थांक ७५८ है। साइज २६४४४११ से.मी. है। पत्र १५०, पंक्ति १९ तथा प्रति पंक्ति अक्षर ५० है। इसकी लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है:"इति श्री चम्पूवृत्तिः समाप्तं ग्रंन्थाग्रंथ ११००० सारस्वतीति नाम्नी वृत्तिरिय संवत् १७६२ वर्षे । कार्तिकमासे। कृष्णपक्षे। १३ तिथउ। गुरुवारे। आगरानगरे। शाके १६२७ प्रवृत्तमाने पू. स्थविर। पूज्य। ऋषि श्री पू। झांझणजी। तच्छिष्य। स्थिवर। पूज्य ऋषि श्री पू.गदराजजी। तच्छिष्य। पूज्य। ऋषि श्री पू। इंद्राजजी। तच्छिष्य। ऋषि श्री पू। मनोहरजी लिषतं ऋषि। हरजी। ऋषि। पूरी।"
यह प्रति भी अशुद्ध होने के कारण यत्र-तत्र इसके पाठान्तर लिए गए हैं।
सन् १९६५ में मैंने इसका सम्पादन कार्य प्रारम्भ किया था। सन् २००८ अर्थात् ४३ वर्ष पश्चात् इसका प्रकाशन हो रहा है। इसकी मुझे हार्दिक प्रसन्नता है। टीका की विशिष्ट प्रति
प्रूफ संशोधन कार्य पूर्ण हो जाने पर इस टीका की एक विशिष्ट प्रति श्री संजय शर्मा म्यूजियम, ठठेरों की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर से मेरे सन्मित्र श्री रामकृपालु शर्मा के यहाँ सुरक्षित है । निरन्तर एकनिष्ठ लगन से और अपने भुजोपार्जित द्रव्य से इस प्रकार का विलक्षण और अभूतपूर्व संग्रह करना यह शर्माजी जैसों का ही कार्य है । इस प्रकार के संग्रहालय देश में गिनेचुने ही प्राप्त होते हैं । इस प्रति के क्रमांक संस्कृत साहित्य ७६८ है और इसके पत्र 198 हैं । इसमें लेखन संवत नहीं दया है किन्तु लेखन प्रशस्ति अवश्य प्राप्त है, वह निम्न है:
"सारस्वतीतिनाम्नीवृत्तिरियम्।
वा०प्रमोदमाणिक्यगणिभ्यः साऊसंखागोत्रीय सा० कम्माकेन सा० जयतसी प्रमुखपुत्रयुतेन प्रदत्ता प्रतिरियं ।। वाच्यमाना चिरंनद्यात्।। श्रीः॥
श्रीजयसो मोपाध्यायै वाचक गुणविनयगणिकृता श्रीचंपूटीकाश्रीरत्ननिधानोपाध्यायानां प्रवर्तनाय प्रादायि। श्रीलाभपुरे।"
इस प्रान्त पुष्पिका से यह स्पष्ट है कि यह प्रति लाभपुर अर्थात् लाहोर में प्रदान की गई है। लाहोर का समय युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि का समय है जबकि आचार्यश्री फाल्गुन शुक्ला बारस संवत् १६४८ के दिन गुणविनय के साथ सम्राट अकबर से मिले थे। उसी समय इस प्रति का व्याकरण की दृष्टि से संशोधन श्री रत्ननिधानोपाध्याय ने किया था। जैसा कि प्रशस्ति श्लोक संख्या २२ से स्पष्ट है। संवत् १६४९ में जिनचन्द्रसूरि को सम्राट ने युगप्रधान पद दिया था और रत्ननिधानोपाध्याय को उपाध्याय पद दिया था। अतः यह ग्रन्थ संवत् १६५० के लगभग लिखित है।
__दूसरी बात, इस लेखन प्रशस्ति प्रान्त पुष्पिका से यह भी स्पष्ट है कि गुणविनयोपाध्याय के दादा गुरु प्रमोदमाणिक्य के लिए साऊसंखागोत्रीय शाह कम्मा ने अपने परिवार सहित यह प्रति उनको भेंट दी।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org