SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११७ टीका- राजगुरु मैथिल श्रीनरहरिशर्मा के संग्रह में है तथा गुणविनयकृत बृहद् टीका - वैद्य श्री रामकृष्णजी के संग्रह में है। यह दोनों संग्रह आज अप्राप्त हैं। चौ० संज्ञक - यह संस्करण सन् १९८९ में चौखम्भा संस्कृत सीरिज बनारस से प्रकाशित हुआ है। इसमें भी चण्डपाल कृत विषमपद व्याख्या दी गई है तथा इसके सम्पादक नन्दनकिशोरजी शर्मा साहित्याचार्य (जयपुर) ने भावबोधिनी टिप्पणी देकर इसका सम्पादन किया ___ इन चारों के पाठान्तर मैंने ग्रन्थ के अन्त में प्रथम परिशिष्ट के रूप में दिए हैं। वस्तुत मूल का पाठ मैंने श्री गुणविनयोपाध्याय कृत टीका के आधार से ही रखा है। इसमें परिवर्तन नहीं किया। टीका के पाठान्तर राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर संग्रहालय ग्रन्थांक २९९९४ पर गुणविनयोपाध्याय कृत टीका की प्रति प्राप्त है। इसकी साईज २६४११ से.मी. है। पत्र की संख्या १६४ है। प्रत्येक पत्र की एक तरफ की १७ पंक्ति है और प्रति पंक्ति ६४ अक्षर है। लेखनकाल का अनुमानत: टीका रचना के समय की ही है। प्रति शुद्धतम है। संशोधित एवं पदच्छेद युक्त है। इस प्रति में मूल पाठ नहीं दिया गया है। केवल प्रतीक मात्र दिया गया है। कतिपय स्थलों पर हांसिए में हरी तालिका या काली स्याहि से = चिह्न अंकित है एवं उसी स्थल पर मध्य में शब्दों के ऊपर = चिह्न है। संभवतः प्रतिलिपिकार या संशोधक को कुछ लिखना अभिष्ट हो या कुछ पंक्तियाँ छुट गई हों तो उसे लिखना चाहता हो। इसी को आदर्श प्रति मानकर मैंने टीका पाठ दिया है। अन्तिम पत्र अर्थात् १६५वें पत्र के अभाव में टीकाकार की के प्रशस्ति पद्य २०, २१, २२ नहीं होने से अन्य प्रतियों से लिए गए हैं। साथ ही अकबर के राज्यकाल ३५वें वर्ष में रत्ननिधानोपाध्याय द्वारा संशोधित होने पर यह प्रति लिखी गई थी। उसके ११ पद्य भी इसमें नहीं है। अत: यह निर्णय कर पाना कठिन है कि जोधपुर वाली प्रति संवत् १६४७ की है या संवत् १६५० के बाद की। संभवत: यह प्रति संवत् १६४७ में ही लिखी गई। क्योंकि इसमें रत्ननिधानोपाध्याय एवं सम्राट अकबर की प्रशस्ति पद्य नहीं है। इस प्रति के आद्यन्तपत्रों की फोटोकॉपी प्रादम्म में दी गई है । बीकानेर में रहते हुए सन् १९६७ में इस टीका की तीन प्रतियाँ अनूप संस्कृत लाइब्रेरी (राजकीय संग्रहालय) बीकानेर में देखी। उनके क्रमांक ३२०९, ३२१०, ३२११ है। क्रमांक ३२११ की प्रति ६० पेज की है और उसका प्रारम्भ और अन्त नहीं है। क्रमांक ३२०९ की प्रति ३३६ पत्र की है। लेखन संवत् १७५४ है और क्रमांक ३२१० की प्रति १८७ पत्र की है, लेखन संवत् १६५३ है। इसका लेखन संवत् प्रतिलिपिकार ने संवच्छिखिशरेदुकलामिते (१६५३) वर्षे लिखा है। इसी प्रति के मैंने पाठान्तर दिए हैं। इस प्रति के पाठान्तर मैंने मूल-टीका के साथ दिये हैं । क्रमांक ३२०९ की प्रति संवत् १७५४ की लिखित है। क्रमाङ्क ३२०९ अपूर्ण होने के कारण और ३०११ अशुद्ध होने के कारण इनका पाठान्तर में उपयोग नहीं किया गया है। इसी प्रकार एक प्रति अगरचन्द भैरूंदान सेठिया पुस्तकालय में भी विद्यमान है। जिसका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy