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________________ ११३ इस शताधिक लघुकृतियों की प्रेसकॉपी श्री अगरचन्दजी नाहटा द्वारा कराई हुई श्री अभय जैन ग्रन्थालय में है। स्वर्गवास-संवतोल्लेख वाली कृतियों में सं० १६७६ के पश्चात् की गुणविनयजी की कोई कृति प्राप्त नहीं है अतः अनुमान है कि वि०सं० १६७६ के पश्चात् २-४ वर्षों में ही आप इस नश्वर देह को छोड़कर स्वर्ग की ओर प्रयाण कर गये हों।। __ शिष्य-परम्परा श्रीगुणविनयजी के स्वहस्त दीक्षित अनेकों शिष्य होंगे किन्तु मतिकीर्त्ति के अतिरिक्त किसी का नामोल्लेख प्राप्त नहीं है। वैसे इनकी परम्परा १९वीं शताब्दी के अन्त तक चलती रही है। इसके पश्चात् परम्परा चली या नहीं, ज्ञात नहीं है। इनकी प्राप्त शिष्य-परम्परा का वंशवृक्ष इस प्रकार है महोपाध्याय जयसोम उ० गुणविनय उ० मतिकीर्ति विजयतिलक तिलकप्रमोद भाग्यविशाल उ० सुमतिसिन्धुर उ० कनककुमार गणि नयनप्रमोदगणि कीर्तिविलास उ० कनकविलास वा० मुनिरंग लब्धिविलास गोपालजी गोपालजी कमलसौभाग्य कमलसौभाग्य वा० क्षमानन्दन सूजोजी दयामर्ति खीबोजी उ० धर्मकल्याण दयामूर्ति पं० वर्धमान उ० कनक सागर वर्द्धमान जीवणजी उ० रत्नविमल देवकुमार क्षमाधर्म राजकीर्ति गुप्तिधर्म क्षमाधीर मयाकुशल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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