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________________ १०६ ___३६. दुमुह प्रत्येकबुद्ध चौपाई-इसका केवल प्रथम पत्र महोपाध्याय रामलालजी संग्रह, बीकानेर में प्राप्त है। ३७. नमि राजर्षि प्रबन्ध-इस प्रबन्ध की रचना सं० १६६० में धनेरा पुर में हुई है। पद्य १६० हैं। इसकी प्रति आगम प्रभाकर मुनि श्रीपुण्यविजयजी संग्रह, अहमदाबाद में प्राप्त है। गुटका नं० ३९ में पत्रांक २३ से ४२ तक स्वयं गुणविनयजी द्वारा लिखित हैं। ६. खण्डन-मण्डनात्मक साहित्य ३८. उत्सूत्रोद्घाटनकुलकखण्डनम्-इसका दूसरा नाम 'कुमतिमत-खण्डन' भी है। इसमें तपागच्छीय आचार्यों द्वारा कई बार दण्डित एवं बहिष्कृत उ० धर्मसागर प्रणीत उत्सूत्रोद्घाटनकुलक का युक्ति पूर्वक खण्डन किया गया है। धर्मसागरजी ने जो खरतरगच्छ की परम्परा एवं समाचारी के सम्बन्ध में आक्षेपात्मक ३० प्रश्न किये थे उन प्रश्नों का आगम, प्रकरण एवं धर्मसागरजी के पूर्वजों आदि के लगभग ६० ग्रन्थों के प्रमाणों से खण्डन करते हुए गच्छ की शुद्ध समाचारी का विस्तार के साथ प्रतिपादन किया है। इस ग्रन्थ की रचना युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के विजय राज्य में, युवाचार्य श्रीजिनसिंहसूरि के आदेश से, गुरु महोपाध्याय श्री जयसोमजी के साथ शास्त्रीय विचार-विनिमय करके पाठक गुणविनय ने सं० १६६५ को नवानगर में की है। इसका श्लोक परिमाण १२५० है। ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है। यह ग्रन्थ जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार सूरत द्वारा मुद्रित हो चुका है। ३९. प्रश्नोत्तरमालिका-इसका प्रसिद्ध नाम 'पार्श्वचन्द्रमतदलन चौपई' है। इस ग्रन्थ में पार्श्वचन्द्रसूरि गच्छ की आगम, परम्परा एवं समाचारी विरुद्ध मान्यताओं का खण्डन किया गया है। इसकी रचना सं० १६७३ में सांगानेर में श्रीसंघ के आग्रह से एवं शिष्य मतिकीर्ति की सहायता से हुई है। यह राजस्थानी पद्य में है। इसकी १७वीं शताब्दी में लिखित प्रति खरतरगच्छ ज्ञान भंडार, जयपुर में तथा वीजापुर जैन ज्ञान मन्दिर नं० ५८२ में प्राप्त है। ४०. लुम्पकमततमोदिनकर चौपाई-इस चौपाई में लुम्पकमत के प्रवर्तक लोकाशाह द्वारा प्रतिपादित 'मूर्तिपूजा अशास्त्रीय है, ३२ आगम ही मान्य हैं' आदि मान्यताओं का १३८ अधिकारों में आगमिक प्रमाणों से खण्डन करते हुए, मूर्तिपूजा एवं पंचांगी की वैधानिकता का विशदता के साथ स्थापना करते हुए, लोंका के मत को अनुचित बतलाया है। टीका में लोंकाशाह द्वारा मान्य ३२ आगमों के पंचांगी (मूल, भाष्य, नियुक्ति, चूर्णि, टीका) सहित उद्धरण दिये हैं। साथ ही ओघनियुक्ति, ललितविस्तरा, प्रवचनसारोद्धार टीका, शतक टीका, संघपट्टक और सहस्रीवृत्ति (४६) के प्रमाण भी उद्धृत किये हैं। मूल राजस्थानी पद्य में है और टीका संस्कृत में। मूल के ५७४ पद्य हैं और टीका का श्लोक परिमाण अनुमानत: ३००० है। बीजक (विषयसूची) भी साथ में संलग्न है। इसकी रचना सं० १६७५ श्रावण कृष्णा ६ शुक्रवार, रवियोग में, सांगानेर में जहाँ श्रीपद्मप्रभ भगवान् का मन्दिर है तथा दादा जिनकुशलसूरि का स्तूप है वहाँ श्री जिनराजसूरि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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