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शिष्य-श्रीगुणविनयोपाध्यायैर्व्यरच्यते' गुरु के लिये 'महोपाध्याय' पद का प्रयोग होने से इसकी रचना १६६३ के आस-पास की संभव है । गद्य का श्लोक परिमाण २३७ है। इसकी १७वीं शताब्दी की लिखित प्रति श्री अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में प्राप्त है, क्रमांक ९०९५ है ।
२२. चरणसत्तरी करणसत्तरी भेद-चरण अर्थात् चारित्र के ७० भेद और करण अर्थात् क्रिया के ७० भेदों का दिग्दर्शन इस कृति में हुआ है।
५. राजस्थानी पद्य - रासादिसंज्ञक रचनायें
२३. कयवन्ना सन्धि - आवश्यकसूत्र की बृहद्वृत्ति के अनुसार दान धर्म के माहात्म्य पर कवयन्ना श्रेष्ठि की कथा है। इस संधि की रचना सं० १६५४ श्रावण शुक्ला ५ को महिमपुर में भ० अजितनाथ एवं शान्तिनाथ के प्रसाद से युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि के धर्मसाम्राज्य में हुई है । ६७ पद्य १७३ हैं। इसकी १७०६ की लिखित १० पत्रों की प्रति भुवनभक्ति जैन ज्ञान भण्डार, बीकानेर क्रमांक २६३ में प्राप्त है ।
२४. कर्मचन्द्रवंशावली रास- इस रास की रचना सं० १६५५ माघ कृष्ण १० गुरुवार अनुराधा नक्षत्र में तोसाम नगर में, जहाँ मंत्री कर्मचन्द्र बच्छावत ने दादा जिनकुशलसूरिजी का स्तूप निर्माण कराया था वहाँ भगवान् संभवनाथ एवं दादा जिनकुशलसूरि के प्रसाद से, गुरु जयसोम पाठक के आदेश से एवं मंत्री कर्मचन्द्र तथा श्रीसंघ के आग्रह से हुई है । ६८ इस समय में तो सामनगर का शासन भी कर्मचन्द्र के करों में था । इस रास में मंत्री कर्मचन्द्र के पूर्वजों की पूर्ण वंशावली देते हुए, पूर्वजों तथा कर्मचन्द्र का राजाओं के साथ सम्बन्ध, उन राजाओं की पूर्व - परम्परा, कर्मचन्द्र एवं पूर्वजों द्वारा किये हुए संग्राम, उनकी तीर्थयात्रायें, प्रतिष्ठायें, पदमहोत्सवादि सुकृतकलापों का सांगोपांग एवं ऐतिहासिक वर्णन दिया है।
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यह रास जयसोमोपाध्याय रचित कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकाव्य का राजस्थानी पद्यानुकरण है यह कृति ऐतिहासिक रास संग्रह भाग ३ में सारांश सहित मुद्रित हो चुकी है। अनेक ढालों में ग्रथित इसकी पद्य संख्या २९९ है I
२५. अञ्जनासुन्दरी प्रबन्ध-शील माहात्म्य पर हनुमान की माता अञ्जनासुन्दरी की कथा इस प्रबन्ध में विस्तार के साथ कही गई है। इसकी रचना युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि एवं युवराजाचार्य श्रीजिनसिंहसूरि के साम्राज्य में, महोपाध्याय जयसोम के अनुग्रह से सं० १६६२ चैत्र शुक्ला त्रयोदशी बुधवार रवियोग में हुई । ६९ प्रशस्ति में जयसोमजी के लिये 'महा उवज्झाय' महोपाध्याय पद का उल्लेख है और लिखा है कि जिनकी वाणी से अनेक नृपति रंजित हुए हैं और अकबर की सभा में विजय (किसी विद्वान् पर) के कारण जिनकी कीर्ति दसों दिशाओं में फैली हुई है। साथ ही अपने गुरुभ्राता विजयतिलक का भी उल्लेख किया है । पद्य २०६ हैं । इसकी स्वयं (गुणविनय ) लिखित ७ पत्रों की प्रति श्री पूज्य श्रीजिनचारित्रसूरि संग्रह - राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, शाखा कार्यालय बीकानेर में प्राप्त है। क्रमांक नं० २०३१ है ।
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