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________________ ९९ प्रतिपादित किया है । यह टीका 'सटीक-वैराग्यशतकादिग्रन्थपञ्चकम्' में देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत एवं सन्मार्ग प्रकाशन, अहमदाबाद से प्रकाशित हो चुकी है। ८. सम्बोधसप्तति टीका - मूल ग्रन्थ प्राकृत भाषा में अंचलगच्छीय श्रीजयशेखसूरि रचित है । इस पर टीका की रचना सं० १६५१ में हुई है । प्रतिपाद्य विषय का विशदता के साथ प्रतिपादन किया है। यह टीका सहित श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर से प्रकाशित हो चुकी है। ९. कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकाव्य टीका - जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि इस ऐतिहासिक प्रबन्ध काव्य के कर्त्ता जयसोमोपाध्याय हैं। गुरु जयसोमोपाध्याय के आदेश ९ से युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि एवं युवराज जिनसिंहसूर के विजय राज्य में सं० १६५६ चैत्र शुक्ला ८ शनिवार पुष्यनक्षत्र में, मन्त्रि कर्मचन्द्र बच्छावत कारित तोसामपुर के जिनकुशलसूरिस्तूप ११ (दादाबाड़ी) के सानिध्य में इस टीका की रचना हुई है। इस टीका में कविकल्पद्रुम, क्रियाकलाप, क्रियारत्नसमुच्चय, रत्नमाला, धन्वन्तरी, अष्टांगहृदय, सिद्धान्तकौमुदी, सिद्धहेम, अनेकार्थसंग्रह आदि ग्रन्थों के उद्धरण दिये हैं । पद्य १३ की टीका में युगप्रधान दादा जिनदत्तसूरि रचित 'मूलविद्या' - मन्त्रशास्त्रसम्बन्धी ग्रन्थ का उद्धरण दिया है, यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है। इस टीका का श्लोक परिमाण ३१५१ है । टीका विशद एवं पठनीय है। टीकाकार ने कर्मचन्द्र के पूर्वजों के नामों तथा उनसे सम्बन्धित ग्रामों के नामों को यथारूप में ही रखा है अर्थात् कुचामण का स्तनमणिपुर, सोझत का शुद्धदन्तिपुर की तरह संस्कृत न कर मूल रूप में रखकर बड़ा अच्छा किया है । ६२ इसी प्रकार प्रशस्ति पद्य ८ में टीकाकार ने जयसोम के लिये अकबर की सभा में किसी विद्वान् पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख किया है किन्तु विद्वान् का नाम और किस संवत् की घटना है इसका निर्देश नहीं किया है, जबकि इस महत्त्वपूर्ण घटना के लिये यह आवश्यक था। इस ग्रन्थ में यह खटकने वाली बात अवश्य है कि काव्यकार और टीकाकार ने कर्मचन्द्र तथा उनके पिता के सुकृत कार्यकलापों के वर्णन के साथ संवतों का निर्देश नहीं किया है, जबकि समकालीन होने से कर सकते थे। यदि इसमें संवतों का उल्लेख होता तो इसकी ऐतिहासिकता में अधिक अभिवृद्धि होती । इस टीका का प्रकाशन मुनि जिनविजयजी कर रहे थे । लगभग ३० वर्षों बाद भारतीय विद्या भवन, बम्बई से प्रकाशित हो चुका है। १०. लघु शान्तिस्तव टीका - इस स्तोत्र के मूलकर्त्ता श्रीमानदेवसूरि हैं। पद्य संख्या १९ है। गुरु जयसोमजी के आदेश से सं० १६५९ में बिल्वतटपुर ( बिलाडा ) में इस टीका की रचना हुई । १३ इस टीका में भी खण्डप्रशस्ति, भागवत, रुद्रट कृत काव्यालंकार, सिद्धहेम एवं अनेकार्थ कोशादि के उद्धरण दिये हैं । प्रशस्ति पद्य २ में गुरु जयसोम की प्रशंसा करता हुआ टीकाकार का कवि हृदय कहता है कि 'भारती, नारी स्वभावगत चापल्य होने पर भी उनके अद्भुत कीर्त्तिगुणों " Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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