________________
शाश्वत (अनेकार्थसमुच्चय), शिशुपालवध, श्रुतिः, सज्जन ( ), संजीविनी (रघुवंश टीका), सिद्धहे मशब्दानुशासन, सिद्धान्कौमुदी, सुरेश्वराचार्य ( ), हलायुध (अभिधानरत्नमाला) आदि।
भाषा की प्रौढता, प्राञ्जलता और शैली की विलक्षणता का रसास्वादत करने के लिये प्रथम पद्य की व्याख्या में आगत 'पार्वतीपरमेश्वरौ' शब्द पर पार्वती शब्द पहले क्यों ग्रहण किया? इस पर टीकाकार का ऊहापोह प्रस्तुत है
___ "ननु अभ्यर्हितेऽभ्यर्हितस्य पूर्वनिपातबलात् परमेश्वरस्यैव पूर्वनिपातत्वमुचितं, कथं पार्वतीशब्दस्य पूर्वनिपातः? उच्यते, बह्वचः पूर्वं अल्पाचः पश्चान्निर्देश: लक्षणहेत्वोः क्रियाया इति ज्ञापकात् सामान्येन पूर्वनिपातप्रकरणाऽनित्यत्वं प्रत्यपादि। यद्वा, प्रयोक्त्रापेक्षयाऽभ्यर्हितत्वं ग्राह्यं, न तु तदन्याराधकापेक्षया, तेनेह ग्रन्थकारस्याभीष्टत्वात् पार्वत्यभ्यर्हिता, यतः स कालिदास इति। यद्वा, पार्वत्या जननीत्वेन निरूपणात् जनन्याश्च जनकादभ्यर्हितत्वं। तथा च थाज्ञवल्क्य :- 'एते मान्या यथा पूर्वमेभ्यो माता गरीयसी।' अन्यत्रापि प्रोचे-"पतिता गुरवस्त्याज्या मातरं न कथञ्चन। गर्भधारणपोषाभ्यां भवेन्माता गरीयसी'। यद्वा, पितरावित्यत्र पूर्वं मात्रभिधानादत्रापि यथाक्रमन्यायेन पूर्व पार्वत्येव घटते मातृकल्पत्वात् तस्याः। अपरे त्वन्यथा व्याचक्षते- "पार्वती पाति-रक्षतीति पार्वतीप:ईशः, रमायाः-लक्ष्म्या ईश्वरः, परमेश्वरः-कृष्णः'। यद्वा, पार्वती पिपर्त्ति-पालयतीति पार्वतीपरः-हरः, पृ पालनपूरणयोरिति धातुसामर्थ्यात्, माया-लक्ष्म्या ईश्वरो मेश्वर:हरिस्ततो द्वन्द्वस्तौ वन्दे। नन्वेतयोः पक्षयोः पितराविति न घटते उभयोरपि पुंस्त्वात्, उच्यतेसमासान्तरकरणान्न दोषस्तथा च पिता च पिता च सरूपाणामेकशेषे पितराविति व्याख्येयं, उभयोरपि पितृकल्पत्वं हरेर्जगत्पालनात् हरस्य च ब्रह्मरूपेण जगत्सृष्टिकारित्वात्।"
वस्तुत: यह टीका रघुवंश की टीकाओं में सर्वश्रेष्ठ है। खेद है कि वैशिष्ट्य पूर्ण इस टीका का आज तक प्रकाशन नहीं हुआ है। साहित्य संस्थानों से मेरा निवेदन है इस टीका का सुसम्पादित संस्करण अवश्य प्रकाशित करें।
इस टीका की प्रतियाँ राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर क्रमांक २८७६८ तथा शाखा कार्यालय बीकानेर में उपाध्याय जयचन्द्रजी के संग्रह में दो प्रतियाँ, वर्द्धमान जैन ज्ञान भण्डार, बीकानेर क्रमांक १०६ एवं दानसागर जैन ज्ञान भंडार, बीकानेर क्र० ५७० में प्राप्त हैं।
७. वैराग्यशतक टीका-पूर्वाचार्य प्रणीत इस ग्रन्थ का अपरनाम भववैराग्यशतक है। मूल ग्रन्थ प्राकृत में है। इस टीका की रचना सं० १६४७ में आचार्य जिनचन्द्रसूरि के धर्मसाम्राज्य५८ में हुई है। इस टीका में प्राकृत व्याकरण, सिद्धहेमशब्दानुशासन, आचारांग सूत्र, भगवती सूत्र, आवश्यक नियुक्ति, उत्तराध्ययन सूत्र, दशवैकालिक सूत्र, धर्मरत्नप्रकरणवृत्ति एवं भर्तृहरि शतक के उद्धरण देते हुए, कतिपय कथा-प्रसंगों के साथ ग्रन्थकार के आशय को बड़ी विशदता के साथ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org