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________________ ९५ प्रथम पत्र अप्राप्त है। यह टीका मेरे द्वारा सम्पादित होकर सुमति सदन, कोटा से प्रकाशित हो चुकी ५. दमयन्ती-कथा चम्पू टीका-त्रिविक्रम भट्ट रचित इस चम्पू का दूसरा नाम दमयन्तीचम्पू भी है। इस टीका का नाम विवृति है। अनूप संस्कृत लायब्रेरी, बीकानेर आदि की प्रतियों में इस टीका का नाम 'सारस्वती'४८ लिखा है। इस टीका की रचना सं० १६४७,४९ अकबर के राज्यकाल से ३५३° वर्ष, बीकानेर के महाराज रायसिंह जी एवं मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र बच्छावत५१ के शासन में सेरुणक (सेरुणा) नामक नगर में हुई है। इसका संशोधन रत्ननिधानोपाध्याय५२ ने किया है। श्लोक परिमाण ग्यारह हजार है। इस टीका की विशेषता के सम्बन्ध में पहले प्रकाश डाल चुका हूँ। इस टीका की सं० १६५३ की लिखित प्रति अनूप संस्कृत लायब्रेरी, बीकानेर क्रमांक ३२१० में प्राप्त है तथा टीका रचना के आस-पास की प्रति राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में प्राप्त है। ६. रघुवंश 'विशेषार्थबोधिका' टीका-इस टीका की रचना सं० १६४६५३ में अकबर५४ के. साम्राज्य में, विक्रमनगर (बीकानेर) में, महाराजा रायसिंहजी तथा बीकानेर के मुख्यमंत्री श्री कर्मचन्द्र५५ के राज्यकाल में, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि५६ के धर्मसाम्राज्य में हुई है। विशिष्ट शिष्यों५७ (सामान्य अभ्यासियों के लिये नहीं) के पठनार्थ इसकी रचना की गई है। टीका का श्लोक परिमाण ९००० है। यह टीका नामानुरूप ही विशेषार्थद्योतक है, प्रौढ एवं विद्वद्भोग्या है। टीका के प्रारम्भ में ही मंगलाचरण पद्यों में टीकाकार ने कहा है कि-"दिनकर, वल्लभ, चारित्रवर्द्धन, जनार्दन आदि कवियों (टीकाकारों) द्वारा लिखित रघुवंश की टीकाओं का उपजीव्य होकर, गुरुचरणों के आदेश से शिष्यप्रबोधनार्थ, नव्य एवं भव्यार्थदीपनपट्वी टीका की मैं रचना करता हूँ। यद्यपि पूर्व की टीकायें विशिष्ट एवं दोषरहित हैं तथापि मैं उन सभी टीकाओं का इस टीका में सामञ्जस्य स्थापित करने का प्रयास कर रहा हूँ। मेरा यह प्रयत्न सफल हो।" दिनकर-वल्लभ - चारित्रवर्द्धनाग्रिम-जनार्दनाभिख्यैः। कविभिर्विहिताः स्वहितास्तवृत्ती: प्रथममुपजीव्य॥५॥ कुर्वे श्रीरघुवृत्तिं नव्यां भव्यार्थदीपनपटिष्टाम्। प्राप्तश्रीगुरुचरणादेशं शिष्यप्रबोधकृते॥६॥ यद्यप्यवद्यरहिताः पूर्वेषां वृत्तयो विशेषयुताः। तदपि तदेकीकरणादत्रायासोऽस्तु मे सफलः॥७॥ गुणविनयजी का यह एकीकरण करने का आयास केवल गर्वोक्ति मात्र नहीं है, अपितु टीका का आलोडन करने पर स्पष्ट है कि टीकाकार अपने इस प्रयत्न में पूर्णरूपेण सफल हुआ है। कहीं किसी टीकाकार के मन्तव्य को स्वीकार किया है, तो कहीं उसे सिद्ध कर सामञ्जस्य स्थापित करने (अर्थसंगत बनाने) का प्रयत्न किया है, तो कहीं उसमें दूषण दिखलाकर उस अर्थ को त्याज्य माना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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