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उदाहरण के तौर पर दोनों अर्थ उद्धृत हैं
"शावा:-बाला: शावेत्युपलक्षणं तेन तरुणप्रवयसामपि ग्रहणं, ते विद्यन्ते यस्मिन् गच्छे स शावी - श्रीमबृहत्खरतरगच्छ : तस्य पालने आस्था - यत्नो येषां ते शाव्यास्था: - श्रीजिनचन्द्रसूरयः, ह्रस्वः संयोगे (सिद्ध० ८-१-८४) इति ह्रस्वः॥ ११५॥"
सेत्यनेन वीत्यनेन च स्वगुरु - कविनाम सूचितं, तत्र सेत्यनेन तुलादण्ड- मध्यग्रहणन्यायेन उभयपार्श्वस्थयोर्जयो (र्मयो) ग्रहणं, तथा च 'जयसोमा' इत्यागतम्। तेषां शिष्येण वीत्यनेन च तन्न्यायेनैव गुणनययोर्ग्रहणं, तथा च 'गुणविनय' इति सिद्धम् । तेन गुणविनयेन प्ररूपिता ये अर्थास्ते सव्यर्थाः तत्त्वोद्बोधका भवन्ति ॥ ११६ ॥
शैली और भाषा प्रौढ एवं प्राञ्जल है। यह ग्रन्थ 'अनेकार्थरत्नमंजूषा' नामक ग्रन्थ में देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत से प्रकाशित हो चुका है।
३. संस्कृत टीकायें ३. खण्डप्रशस्ति सुबोधिनी टीका-कवि हनूमान् रचित खण्ड-प्रशस्ति नामक लघु काव्य पर 'सुबोधिनी विवृति' नामक यह टीका है। इस खण्ड काव्य में दश अवतारों की स्तुति होने से इसे 'दशावतार स्तोत्र' भी कहते हैं। इस टीका की रचना सं० १६४१ में हुई है।४३ संवत् के आधार से गुणविनयजी की यह प्रथम रचना है। प्रथम कृति होने पर भी भाषा में निखार है और व्याख्या भी हृदयग्राह्य। टीका में गणिजी ने सूक्तावली, रत्नावतारिका, शारदातिलकवृत्ति आदि १९ ग्रन्थों के उद्धरण दिये हैं। जम्बू शब्द का ह्रस्व प्रयोग शुद्ध है या नहीं, इस पर चान्द्र जैसी अप्रसिद्ध व्याकरण का भी उद्धरण दिया है। पद्य १४७ की टीका में शीलदेवसूरि५ का उल्लेख किया है, इनकी कौन सी कृति है? अन्वेष्य है। पद्य १३ की टीका में पूर्ववृत्तिकृता' शब्द से इसकी प्राचीन टीका का उल्लेख किया है। यह टीका किसकी है? शोध्य है।
___ इस टीका की अनेकों प्राचीन प्रतियाँ राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, शाखा कार्यालय बीकानेर, बृहद्ज्ञान भण्डार बीकानेर आदि में प्राप्त हैं। यह टीका मेरे द्वारा सम्पादित होकर राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर से सन् १९७५ में खण्डप्रशस्तिः टीका द्वय सहित प्रकाशित हो चुकी है। ४. नेमिदूत टीका-सांगण सुत विक्रम प्रणीत मेघदूत के चतुर्थ चरण की पादपूर्ति रूप काव्य पर सं० १६४४ में बीकानेर में महाराजा रायसिंह जी और मन्त्रीश्वर कर्मचन्द्र बच्छावत६ के राज्यकाल में इस टीका की रचना हुई। पद्य ५४ में कवि द्वारा प्रयुक्त 'विरचत' शब्द को टीकाकार ने चिन्त्य माना है। टीका प्रौढ एवं पठनीय है। प्रशस्ति में टीकाकार ने स्वयं के लिये और गुरु के लिये 'गणि'४७ पद का प्रयोग किया है। इसकी स्वयं (गुणविनयजी) द्वारा लिखित प्रति राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, शाखा कार्यालय बीकानेर, मोतीचंद खजांची संग्रह में प्राप्त है। इस प्रति का
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