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रत्नसंचयप्रकरण (२३७), राजप्रश्नीय सूत्र टीका सह, ललितविस्तरा, वन्दारुवृन्दारकवृत्ति, वसुदेवहिण्डी, वासुपूज्य-चरित्र, विचारग्रन्थ (१४७, १४८), विचारसार (मेरुसुन्दरकृत), विचारामृतसंग्रह (कुलमण्डनसूरिकृत), विजय चरित्र, विपाकसूत्र टीका सह, विशेषकल्प-भाष्यचूर्णि सह, विशेषावश्यक भाष्य, विष्णुपुराण, वीरचरियं (गुणचंद्र गणि कृत), वीरचरित्र (हेमचन्द्राचार्य कृत), व्यवहारसूत्र नियुक्ति-भाष्य-चूर्णि-टीका सह, शतक टीका, शतक-लघु टीका, शतपदी, शत्रुञ्जयमाहात्म्य, शान्तिनाथ चरित्र, शाश्वत-चैत्यजिनबिम्ब-स्वरूप-निरूपक स्तोत्र (तरुणप्रभसूरिकृत २३५), श्राद्धजीतकल्प टीका सह, श्राद्धदिनकृत्य लघुवृत्ति सह, श्राद्धविधिप्रकरण टीका सह (रत्नशेखरीय), श्रावकधर्मप्रकरण (जिनेश्वरीय) टीका (लक्ष्मीतिलक कृत) सह, श्रावक प्रज्ञप्ति टीका सह, श्रावकप्रतिक्रमणचूर्णि (विजयसिंहाचार्य कृत), षट्स्थानकप्रकरण टीका सह, षडशीति टीका सह, षडावश्यक टीका (जिनेश्वरसूरिकृत १४२), षडावश्यक वृत्ति (नमिसाधुकृत), षडावश्यक वृत्ति (श्रीचन्द्रसूरिकृत), संग्रहणी वृत्ति सह, संघपट्टक बृहद्वृत्ति, चित्रकूटीयप्रशस्ति, संघाचार टीका सह, संदेहदोलावली टीका सह, समयसार टीका सह (७८), समवसरणस्तवावचूरि, समवायांग सूत्र टीका सह, सर्वजीवशरीरावगाहना स्तव (जिनवल्लभसूरि कृत), साधुदिनचर्या वृत्ति (मतिसागरीय), सामाचारी (वसुदेवसूरि कृत), सिद्धप्राभृत, सिद्धसेनदिवाकर (३६), सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार टीका (धनेश्वरसूरिकृत) सह, सूत्रकृतांग सूत्र चूर्णि टीका सह, सूर्यप्रज्ञप्ति टीका सह, सूरप्रभाचार्य (१०५), स्थानांग सूत्र टीका सह।
___ इस ग्रन्थ का श्लोक परिमाण लगभग १३००० हजार है। इसकी १९वीं शती की लिखित प्रति राजेन्द्रसूरि ज्ञान भंडार, आहोर में प्राप्त है, इसी प्रति के साथ स्वयं गुणविनय द्वारा लिखित बीजक (सूची) भी है। इसी शताब्दी की प्रतिलिपियाँ बीकानेर बड़े ज्ञान भंडार और जिनहरिसागरसूरि ज्ञान भंडार, लोहावट में उपलब्ध है। विचार-विमर्श का यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशन योग्य है।
२. अनेकार्थ-साहित्य २. सव्वत्थ-शब्दार्थ-समुच्चय-प्रशस्ति में रचना संवत् का उल्लेख न होने से इसकी रचना कब हुई निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु प्रशस्ति में "श्रीजयसोमगणि-शिष्यपण्डित-गुणविनयगणिभिरमी अर्थाः" गुरु जयसोम के लिये व स्वयं के लिये 'गणि' शब्द का प्रयोग होने से यह निश्चित है कि इसकी रचना सं० १६४९ के पूर्व हो चुकी थी।
पाणिनीय, सिद्धहेम व्याकरण और अनेकार्थ एवं एकाक्षरी कोषों के आधार से 'सव्वत्थ' शब्द के सुभट, गणधर, अच्छुप्ता देवी, भूपाल, गुरु, वृषभ, योग आदि ११७ अर्थ किये हैं। ११५ वें और ११६ के अर्थ में गच्छनायक जिनचन्द्रसूरि, गुरु जयसोम और स्वयं के नाम का ग्रहण किया है।
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