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________________ ९० उपाध्याय पद-गुणविनयजी ने स्वयं के लिये पाठक पद का प्रयोग सर्वप्रथम १६६३ में शत्रुजय तीर्थ स्तवन (आदि पद-डूंगर भलइ भेट्यउ श्री सेर्जेज तणउ) गा० १४ में 'संथुणियउ पाठक गुणविनय' किया है। पश्चात् १६६५ उत्सूत्रोद्घट्टनकुलकखण्डन (कुमतिमतखण्डन) में 'पाठकवरगुणविनयैः' (पद्य ७) किया है। अतः यह निश्चित है कि १६६३ के पूर्व ही यु० जिनचन्द्रसूरि जी ने इन्हें उपाध्याय पद प्रदान किया था। कविराज-गुणविनय के शिष्य मतिकीर्ति ने सं० १६७६ में रचित नियुक्ति-स्थापन नामक ग्रन्थ (पद्य ५) में लिखा है कि 'चम्पू (दमयन्तीचम्पू) रघु (रघुवंश) आदि प्रमुख काव्यों के टीकाकार होने से तथा नये-नये कवित्व (काव्य) सर्जन करने के कारण जिन्होंने जहांगीर से 'कविराज' पद प्राप्त किया' चम्पूरघुमुख्यानां विवरणात्तया जहांगीरात्। नवनवकवित्वकथनैरवाप्त कविराजिराजपदाः॥५॥ मतिकीर्त्ति के इस कथन से स्पष्ट है कि जहांगीर ने इन्हें 'कविराज' पद देकर सम्मानित किया था। यह समय सं० १६५० से १६५५ के मध्य का हो सकता है। साथ ही इस कथन से दो नये तथ्य सामने आते हैं-१. सं० १६४९ के पश्चात् गुणविनयजी का जहांगीर से वर्षों तक सम्पर्कसम्बन्ध बना रहा और २. गुणविनयजी ने नूतन काव्यों का निर्माण किया। किन्तु दुःख है कि वर्तमान में प्राप्त गुणविनयजी के साहित्य में आज तक कोई नवीन काव्य प्राप्त नहीं हुआ। संभव है किन्हीं भंडारों में बंद हों या नष्ट हो गये हों। ___ भ्रमण-गुणविनयजी रचित स्तवन-साहित्य में एवं ग्रन्थों में जिन नगरों के नामों का उल्लेख हुआ है वे ये हैं-फलौधी, जोधपुर, सेरूणा, पाली, बापड़ाउ, मालासर, बीकानेर, जैसलमेर, अमरसर, लौद्रवा, बाडमेर, सांगानेर, मालपुरा, आगरा, लाहोर, सधरनगर, तोसामनगर, महिमपुर, हिसार, खंभात, राजनगर (अहमदाबाद), नवानगर, बेनातट, राडद्रहपुर, विशाला, भडकुलि, शत्रुजय, गिरनार आदि। इससे स्पष्ट है कि आपका विहार-विचरण क्षेत्र सिन्ध, पंजाब, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और गुजरात रहा है। ____ सं० १६४४ में बीकानेर से शत्रुजय तीर्थयात्रा के लिये यात्री संघ निकलकर संघपति सोमजी के संघ के साथ शत्रुजय गया उसमें गुणविनयजी भी सम्मिलित थे और उस संघ का वर्णनात्मक स्तवन भी इन्होंने 'शत्रुजय चैत्यपरिपाटी' के नाम से बनाया था। सं० १६६३ फाल्गुन शुक्ला ३ को भी इन्होंने गिरिराज की यात्रा की थी तथा सं० १६७५ वैशाख शुक्ला १३ के दिन संघपति रूपजी कारित शत्रुजय तीर्थ पर बृहत्प्रतिष्ठा महोत्सव के समय भी आप उपस्थित थे।३८ ____ इष्ट-गुणविनयजी को अपने जीवन में तीर्थंकरों में फलवर्द्धि पार्श्वनाथ का अधिक इष्ट प्रतीत होता है जो कि इनके ग्रन्थों के मंगलाचरणों से स्पष्ट है। साथ ही इससे भी अधिक दादा जिनदत्तसूरि और दादा जिनकुशलसूरि का इन्हें इष्ट था। यही कारण है कि इन्होंने अपने ग्रन्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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