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१४. पार्श्वजिनस्तवः – ' शृंखलाचित्रमय ' पद्य ५, आदि पद - ' लसत्पंकजामोद - नि:श्वाससारं ' । १५. पार्श्वजिनस्तव:- - पद्य ५, आदि पद-'सन्तोषशर्मसदनं सदनन्द्यसारं '।
१६. तिमरी - ग्रामस्थ पार्श्वस्तवः - पद्य ५, आदि पद-' भविकभावुकसंगमकारम्'। इनके अतिरिक्त भाषा के कई स्तवन, पद आदि भी प्राप्त हैं ।
उपाध्याय गुणविनय -
वहाँ के निवासी थे, कब जन्म हुआ, माता-पिता का क्या नाम था, स्वयं का दीक्षा पूर्व क्या नाम था, कब दीक्षा ग्रहण की, गणि पद तथा उपाध्याय पद कब प्राप्त हुआ, और कब स्वर्गवास हुआ आदि के सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है । स्वप्रणीत ग्रन्थों के आधार पर कुछ अनुमान किये जा सकते हैं।
प्रधान जिनचन्द्रसूरि स्थापित नंदी सूची को देखते हुए 'विनय' नंदी आठवीं है । 'राज' नंदी दसवीं है। महिमराज (जिनसिंहसूरि) का दीक्षा समय १६२३ है । अत: १६१२ से १३२३ तक दस नंदियाँ स्थापित हुईं, अर्थात् प्रतिवर्ष एक नंदी स्थापित हुई । अतः विनय नंदी का समय १६२० और १६२१ का माना जा सकता है। ऐसी अवस्था में यह अनुमान कर सकते हैं कि गुणविनय क दीक्षा १६२० या १६२१ में हुई है। दीक्षा के पूर्व कम से कम भी ८-९ वर्ष की अवस्था का अनुमान किया जाय तो इनका जन्म संवत् १६१२ या १६१३ स्वीकार किया जा सकता है । इनके (गुणविनय) प्रणीत भाषा के ग्रन्थों को देखने से स्पष्ट है कि इन पर राजस्थानी भाषा का पूर्ण प्रभाव है, अतः ये राजस्थान प्रान्त के ही निवासी थे, माना जा सकता है।
दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् इनका अध्ययन जयसोमोपाध्याय के सान्निध्य में ही हुआ है। खण्डप्रशस्ति टीका में 'सुपाठका में गुरवो गरिष्ठाः ३४ और दमयन्ती कथा चम्पू टीका में 'सन्तीह :३५ शब्दों से लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि मेरे विद्यागुरु और गुरु जयसोम ही हैं ।
मत्पाठकाः
विनयजी ने अपनी प्रथम कृति खण्डप्रशस्ति की टीका १६४१ और प्रत्येक अवतार की टीका की प्रान्त प्रशस्ति में स्वयं के लिये ' श्रीगुणविनय - विरचितायां' का प्रयोग किया है और नेमिदूत की टीका (र०सं० १६४४) में स्वयं के लिये 'गुणविनयगणिसुधिया '३६. का प्रयोग किया है । अतः स्पष्ट है कि इनको गणि पद सं० १६४१ और १६४४ के मध्य में प्राप्त हुआ है।
सं० १६४८ तक खण्डप्रशस्ति, नेमिदूत, दमयन्तीचम्पू और रघुवंश आदि ग्रन्थों पर टीकायें रचकर गुणविनय जी काफी प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे । यही कारण है कि इनकी प्रतिभा और असाधारण योग्यता देखकर ही आचार्य जिनचन्द्रसूरि सम्राट् अकबर के आमन्त्रण पर जब सं० १६४८ फाल्गुन शुक्ला १२ को लाहोर पधारे उस समय इनको भी साथ ले गये थे । सं० १६४९ फाल्गुन कृष्णा १० को लाहोर में युगप्रधान -पद-प्रदान महोत्सव के समय सम्राट् अकबर की उपस्थिति में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने स्व - करकमलों से इन्हें वाचनाचार्य पद प्रदान किया था । ३७
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