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________________ मिथ्याज्ञान के भेद सद्सतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरून्मत्तवत् ||33|| सूत्रार्थ - सत् (वास्तविक) और असत् (काल्पनिक) पदार्थों में भेद नहीं करने से यदृच्छोपलब्ध (चाहे जैसा मानने के कारण) मिथ्यादृष्टि का ज्ञान उन्मत्त की तरह अज्ञानरूप ही होता विवेचन - यहाँ पर प्रारम्भ के तीन ज्ञान विपर्यय होते है यह बतलाकर वे विपर्यय क्यों होते है यह बतलाया गया है। संसारी जीव की श्रद्धा विपरीत और सम्यक् के भेद से दो प्रकार की होती है। विपरीत श्रद्धावाले जीव को विश्व का यथार्थ ज्ञान नहीं होता। आत्मा और परमात्मा के स्वरूप बोध से तो वह सर्वथा वंचित ही रहता है। वह घट को घट और पट को पट ही कहता है, पर जिन तत्त्वों से इनका निर्माण होता है उनका इसे यथार्थ बोध नहीं हो पाता। यही कारण है कि जीव की श्रद्धा के अनुसार ज्ञान भी सम्यक्ज्ञान और मिथ्याज्ञान इन दो भागों में विभक्त हो जाता है। यथार्थ श्रद्धा होने पर जो ज्ञान होता है उसे सम्यग्ज्ञान कहते है। और यथार्थ श्रद्धा न होने पर जो ज्ञान होता है उसे मिथ्याज्ञान कहते है। ऐसे मिथ्याज्ञान तीन माने गये हैं - कुमति, कुश्रुत और विभंगज्ञान। ये तीन ज्ञान ही मिथ्या होते हैं। उन्मत्त (पागल) व्यक्ति वस्तु को उसके सही स्वरूप से नहीं, अपनी इच्छा से अपनी कल्पना से स्वीकारता है वह कभी घट को घट कहेगा, कभी पट। उसी तरह मिथ्यात्वी वस्तु को उसके अनंत सही पर्याय से नहीं स्वीकारता किन्तु अपनी मिथ्या मान्यता के आधार पर स्वीकारता है। नय के भेद नैगम-संग्रह-व्यवहारर्जुसूत्र-शब्दा नयाः ।।34|| सूत्रार्थ - नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द ये पांच नय हैं। आघ-शब्दौ द्वि-त्रि भेदौः ||35|| सूत्रार्थ - आद्य अर्थात् प्रथम नैगम नय के दो और शब्द नय के तीन भेद हैं। विवेचन - प्रस्तुत दोनों सूत्रों में नयों के नामों का निर्देश किया गया है साथ ही यह भी बतालाया है कि नैगम नय के दो भेद है और शब्द नय के तीन भेद हैं। नय के भेदों की संख्या के विषय में कोई एक निश्चित परम्परा नहीं है। इनकी तीन परम्पराएँ देखने में आती है। एक परम्परा सात नयों को मानती है। जैसे नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नय। यह परम्परा जैनागमों एवं दिगम्बर ग्रन्थों की है। दूसरी परम्परा आचार्य
SR No.004061
Book TitleTattvartha Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2013
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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