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________________ 7. भाव - अर्थात् अवस्था विशेष या जीव का परिणाम । औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन तीन अवस्थाओं में सम्यक्त्व पाया जाता है तथा इन तीन भावों से ही सम्यक्त्व की शुद्धता का ज्ञान किया जाता है। 8. अल्पबहुत्व का अर्थ है न्यूनाधिकता कम और अधिक होना। इस अपेक्षा से औपशमिक सम्यग्दर्शन सबसे कम, क्षायोपशमिक इससे असंख्यात गुणा और क्षायिक अनन्तगुणा होता है। यह विचार सम्यक्त्वधारी जीवों की अपेक्षा से है। सम्यग्ज्ञान के भेद मतिश्रुतावधि-मनः पर्याय केवलानि ज्ञानम् ||१|| सूत्रार्थ - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन: पर्यायज्ञान और केवलज्ञान ये पाँच ज्ञान हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सम्यग्ज्ञान के पाँच मूल भेदों का उल्लेख किया गया हैं। उपर्युक्त सूत्र 2 में सम्यग्दर्शन का लक्षण बताया गया है वैसे यहाँ सम्यग्ज्ञान का लक्षण नहीं बताया गया है। क्योंकि सम्यग्दर्शन का लक्षण जान लेने से सम्यग्ज्ञान का लक्षण अपने आप जान लिया जाता है। अक्षर के अनंतवें भाग जितना ज्ञान हमेशा किसी न किसी प्रकार से जीव में अवश्य रहता ही है। जब जीव में सम्यक्त्व का आविर्भाव होता है तब वह ज्ञान भी सम्यग्ज्ञान कहलाता है। यहाँ पर सम्यग्ज्ञान के पाँच भेद बताये गये हैं : 1. मतिज्ञान - पाँच इन्द्रिय एवं मन के माध्यम से आत्मा द्वारा सामने आये पदार्थ को जान लेने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते है। 2. श्रुतज्ञान- शब्द, सकेंत या शास्त्र आदि के माध्यम से जो अर्थ ग्रहण किया जाता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। शब्द आदि सुनना या सकेंत आदि देखना मतिज्ञान है लेकिन शब्द, संकेत आदि से अर्थ का बोध होना श्रुतज्ञान है। जैसे कोई अंग्रेजी में कुछ गा रहा है, उसे हम नहीं समझते फिर भी शब्द तो कानों को टकराते हैं । लेकिन जब तक उसका I अर्थ बोध नहीं होता तब तक मतिज्ञान और अर्थ का बोध होने पर श्रुतज्ञान होता हैं, इसलिए मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है। 3. अवधिज्ञान - अवधि का अर्थ है सीमा, मर्यादा। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा सहित इन्द्रिय और मन की 11 sonal & Private USE C www.
SR No.004061
Book TitleTattvartha Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2013
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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