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निर्देशस्वामित्व साधनाधिकरण स्थिति - विधानतः ||7||
सूत्रार्थ - निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान से सम्यग्दर्शन आदि विषयों का ज्ञान होता है।
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विवेचन - व्यक्ति जब कोई भी नई वस्तु पहले-पहल देखता या उसका नाम सुनता है, तब वह उस वस्तु के संबंध में अनेक प्रश्न करने लगता है। वह उस वस्तु के स्वभाव, रूप-रंग, उसके मालिक बनाने की पद्धति, टिकाऊपन, नानाविध प्रश्न करके अपने ज्ञान की वृद्धि करता है। इसी तरह अन्तर्दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति भी मोक्षमार्ग या हेय - उपादेय आध्यात्मिक तत्त्व को सुनकर तत्सम्बन्धी विविध प्रश्नों के द्वारा अपना ज्ञान बढ़ाता है। यही आशय प्रस्तुत सूत्र में प्रकट किया गया है।
1. निर्देश - किसी वस्तु के स्वरूप का कथन करना निर्देश है। सम्यग्दर्शन क्या है? यह प्रश्न हुआ, इस पर जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, ऐसा कथन करना निर्देश है या नामादिक निक्षेप के द्वारा सम्यग्दर्शन का कथन करना निर्देश है।
2. स्वामित्व - स्वामित्व अर्थात् अधिकारी । सम्यग्दर्शन पर जीव का अधिकार है अजीव का नहीं, क्योंकि वह जीव के ही गुण की पर्याय है।
3. साधन - वस्तु (सम्यग्दर्शन) की उत्पत्ति का कारण । साधन दो प्रकार के है - अभ्यन्तर और बाह्य ।
दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशम अभ्यन्तर साधन है। बाह्य साधनशास्त्रज्ञान, प्रतिमादर्शन, सत्संग आदि अनेक साधन है।
4. अधिकरण - अधिकरण अर्थात् आधार । सम्यग्दर्शन का आधार जीव ही है, क्योंकि वह उसका परिणाम होने के कारण उसी में रहता है।
5. स्थिति - अर्थात् काल मर्यादा । जैसे सम्यग्दर्शन इतने समय तक रह सकता है। औपशमिक सम्यग्दर्शन का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन का उत्कृष्ट काल 66 सागरोपम है। औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन सान्त है, क्योंकि वह होकर भी स्थिर नहीं रहते। पर क्षायिक सम्यग्दर्शन अनंत काल है क्योंकि वह उत्पन्न होने के बाद नष्ट नहीं होता। जीव के साथ सिद्धावस्था में भी रहता है इसी अपेक्षा से सम्यग्दर्शन को सादि सांत और सादि अनंत समझना चाहिए।
6. विधान - वस्तु के भेद अथवा प्रकार । जैसे सम्यग्दर्शन के मुख्यतः कितने प्रकार है ? सम्यग्दर्शन के औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक ऐसे तीन प्रकार है।
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