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तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ||2||
सूत्रार्थ - तत्त्व (वस्तु स्वरूप) का अर्थ सहित यह ऐसा ही है ऐसे निश्चय पूर्वक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
__ विवेचन - यहाँ तत्त्व और अर्थ इन दोनों शब्दों के संयोग से तत्त्वार्थ शब्द बना है। तत्त्व शब्द में तत् पद है तथा त्व प्रत्यय है। तत् + त्व = तत्त्व। तत् का अर्थ है जिस पदार्थ का जो भाव हो तथा त्व' का अर्थ हैं ‘पना' अर्थात् जिस पदार्थ का जो भाव हो, उस पदार्थ का उस भाव रूप होना तत्त्व' है। तत्त्व से जिसका निश्चय किया जाता है वह अर्थ है। इस तरह तत्त्व रूप अर्थ को तत्त्वार्थ कहते हैं। आशय यह है कि पदार्थो का उनके अपने-अपने स्वरूप के अनुसार जो (निश्चय पूर्वक) श्रद्धान दृढ़ विश्वास होता है वह सम्यग्दर्शन है।
सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के प्रकार तनिसर्गादधिगमाद्वा ||3||
सूत्रार्थ - सम्यग्दर्शन निसर्ग या अधिगम दो में से किसी एक प्रकार से उत्पन्न होता है।
विवेचन - निसर्ग का अर्थ है स्वभाव या परिणाम मात्र। जो सम्यग्दर्शन उपदेश आदि बाह्य निमित्तो से रहित मात्र जीव के स्वयं के स्वभाव (आन्तरिक भाव) के कारण से उत्पन्न होता है वह
__ निसर्ग सम्यग्दर्शन कहलाता है।
__ अधिगम का अर्थ है परोपदेश आदि बाहय निमित्त। जिस सम्यग्दर्शन में किसी बाह्य निमित्त अर्थात् अरिहंत परमात्मा की प्रतिमा, गुरू का उपदेश, शास्त्र-स्वाध्याय, सत्संग आदि की अपेक्षा रहती है। जो किसी दूसरे का निमित्त पाकर उत्पन्न होता है, वह अधिगम सम्यग्दर्शन है।
सम्यग्दर्शन
निसर्ग
अधिगम
स्वभाव या परिणाम
परोपदेश आदि बाह्य निमित्त
अरिहंत परमात्मा की प्रतिमा,
गुरू का उपदेश आदि