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________________ हुआ अनिश्चित ज्ञान संशय है। जैसे कि वह धूल है या धुँआ ? जिसमें कोई निश्चय न हो सके, “कुछ तो है” इतना ही बोध हो, वह विभ्रम है। जैसे पाँव में किसी चीज की चुभन सा महसूस हो किन्तु यह निश्चय न हो सके कि वह नुकीला कंकर था, काँच का टुकडा था, अथवा किसी कांटे की नोंक थी। अंधेरे में रस्सी को साँप और साँप को रस्सी समझ लेना विपर्यय अर्थात् विपरीत ज्ञान है। सामान्यत : सम्यग्ज्ञान ही सम्यग्दर्शन व सम्यकचारित्र की प्राप्ति, स्थिरता व विशुद्धि का कारण बनता है। जबकि मिथ्याज्ञान जीव को सम्यग्दर्शन व सम्यक् चारित्र से विमुख रखता है, अतः जीवन में कैसा ज्ञान लेना व किसके पास प्राप्त करना यह विवेक भी बड़ा आवश्यक बन जाता है। आत्मा के अस्तित्व पर सही प्रतीति हो जाने पर और आत्मा के स्वरूप का सही-सही ज्ञान हो जाने पर भी जब तक उस प्रतीति और ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं किया जायेगा, तब तक साधक की साधना परिपूर्ण नहीं हो सकेगी। हमने विश्वास कर लिया कि आत्मा है और यह भी जान लिया कि आत्मा पुद्गल से भिन्न है, परन्तु जब तक उसे पुद्गल से अलग करने का प्रयत्न नहीं किया जायेगा तब तक अभीष्ट सिद्धि नहीं हो सकती। सम्यग्दर्शन होने का फल यह है कि आत्मा का अज्ञान, ज्ञान में परिणत हो गया। इसी तरह सम्यग्ज्ञान का फल यह है कि आत्मा अपने विभाव को छोडकर स्वभाव में पूर्ण स्थिर होवे । विभाव मोह जनित विकल्प एवं विकारों को छोडकर स्व-स्वरूप रमण की परिपूर्णता में लीन हो जाना सम्यक्चारित्र है। यही विशुद्ध संयम है, सर्वोत्कृष्ट शील है। हिंसा वैगरह में निवृत्ति और ज्ञानाचार आदि में प्रवृति व्यवहार चारित्र है। व्यवहारिक सम्यक्चारित्र - सम्यग्ज्ञान पूर्वक कषाय, अविरति आदि भाव से निवृत होकर आत्मस्वरूप में लीन होना सम्यक्चारित्र है। आध्यात्मिक सम्यग्दर्शन तत्त्वों का सही श्रद्धान आत्मा की श्रद्धा मोक्ष के साध सम्यग्ज्ञान तत्त्वों का सही ज्ञान आत्मा का ज्ञान 3 सम्यक्चारित्र अशुभ से निवृत्ति शुभप्रवृत्ति आत्मा में स्थिरता
SR No.004061
Book TitleTattvartha Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2013
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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