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प्रथम अध्याय
ज्ञान सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः ||1||
सूत्रार्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - ये तीनों मिलकर मोक्ष का मार्ग हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में मोक्ष-प्राप्ति का जो मार्ग बताया गया वह मार्ग हैं - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। ये तीनों सम्मिलित रूप से मिलकर मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बनते हैं। इन तीनों में से अलग-अलग कोई भी एक अथवा दो मोक्ष की प्राप्ति नहीं करा सकते।
मोक्ष का स्वरूप - बन्ध एवं बन्ध के कारणों के अभाव से होनेवाला परिपूर्ण आत्मिक विकास मोक्ष है।
सम्यग्दर्शन - सम्यग्दर्शन में दो शब्द हैं - सम्यक् और दर्शन। सम्यक् शब्द सत्यता, यथार्थता और मोक्षाभिमुखता के लिए प्रयुक्त हुआ है। दर्शन का अर्थ दृष्टि, देखना, जानना, मान्यता, विश्वास, श्रद्धा करना आदि है। जो वस्तु जैसी है, जिस रूप में अवस्थित है, स्वयं के पूर्वाग्रह त्याग कर, तटस्थता पूर्वक उसको वैसी ही मानकर यथार्थ श्रद्धा विश्वास धारण करना. वह यथार्थ श्रद्धा जो सत्य-तथ्य पूर्ण होने के साथ-साथ मोक्षाभिमुख हो, जिससे ज्ञेयमात्र को तात्विक रूप में जानने की, हेय (छोडने योग्य) एवं उपादेय (ग्रहण करने योग्य) तत्त्व के यथार्थ विवेक युक्त अभिरूचि हो वह सम्यग्दर्शन है।
व्यावहारिक दृष्टि से “तमेव सच्चं निसंकं जं जिणेहिं पवेइयं
वहीं नि:शंक सत्य है जो सर्वज्ञ जिनेश्वरों ने बताया है ऐसी श्रद्धा तमेव सच्च
करना सम्यग्दर्शन है। देव, गुरू, धर्म इन तीनों के प्रति यथार्थ श्रद्धा णिसंक
करना अर्थात् अरिहंत ही मेरे देव हैं, शुद्ध आचार का पालन करने वाले सुसाधु ही मेरे गुरू हैं और जिनेन्द्र देव द्वारा प्ररूपित धर्म ही प्रमाण है इस प्रकार के शुभ भाव को सम्यग्दर्शन कहा है। __ आध्यात्मिक अथवा निश्चय दृष्टि से पर पदार्थों से विमुखता व
आत्मा की रूचि, आत्म स्वरूप की अनुभूति, प्रतीति यथार्थ विश्वास और उसका दृढ़ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। सम्यग्ज्ञान - प्रमाण और नयों के द्वारा जीवादि तत्त्वों का
ज्ञान संशय, विभ्रम और विपर्यय से रहित वस्तु तत्त्व का यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान कहलाता है। आत्मा को जानना, आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है।
सामान्य रूप से एक ही पदार्थ के लिए अनेक वस्तुओं में धुमता
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