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दृष्टि से है। निश्चय दृष्टि से तो सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठित अपने अपने स्वरूप में स्थित है। प्रश्न हो सकता है कि जब धर्म आदि चार द्रव्यों का आधार आकाश माना गया है तो आकाश का आधार क्या है ? इसका उत्तर यही है कि आकाश का अन्य कोई आधार नहीं है क्योंकि उससे बडा या उसके तुल्य परिमाण का दूसरा द्रव्य नहीं है, जिसमें आकाश आधेय बन सके। अत: सर्वतः यह अनंत आकाश स्वप्रतिष्ठित है।
धर्म अधर्म द्रव्य तिल में तेल की तरह समस्त लोकाकाश में व्याप्त रहते हैं। इसलिए सूत्रकार ने कृत्सने' शब्द दिया है। इसका अर्थ होता है व्याप्ति या सम्पूर्णता।
आकाश द्रव्य अनंत है । किन्तु जहाँ तक धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय रहते हैं वहाँ तक लोकाकाश है और उससे आगे तो अनंत अलोकाकाश है।
जीव और पुद्गल द्रव्य में स्वाभाविक गतिक्रिया होती है। वे अपना स्थान बदलते रहते हैं। किन्तु धर्म-अधर्म द्रव्य स्थित है, उनमें गति क्रिया नहीं है इसलिए लोक की मर्यादा का विभाग उन्हीं से होता हैं।
पुद्गलों की स्थिति लोकाकाश के एक प्रदेश से लेकर असंख्यात प्रदेशों में है। कोई पुद्गल लोकाकाश के एक प्रदेश में और कोई दो प्रदेशों में रहता है। कोई पुद्गल असंख्यात प्रदेश परिमित लोकाकाश में भी रहता है। एक परमाणु एक ही आकाश प्रदेश में स्थित रहता है परन्तु दो परमाणुओं से बना हुआ द्वयणुक तीन परमाणुओं से बना हुआ त्र्यणुक आदि यहाँ तक संख्यात, असंख्यात अनंत
और अनन्तानन्त परमाणुओं का स्कन्ध आकाश के एक प्रदेश पर भी स्थित रह सकता है, दो प्रदेशों पर भी और असंख्यात प्रदेशों पर भी।
यद्यपि पुद्गल द्रव्य अनन्तानंत और मूर्त है तथापि उनका लोकाकाश में समा जाने का कारण यह है कि पुद्गलों में सूक्ष्म रूप से परिणत होने की शक्ति हैं। इस सूक्ष्म परिणमन शक्ति के कारण वे स्कन्ध न किसी को बाधा पहुँचाते हैं और न स्वयं ही किसी अन्य द्वारा बाधित होते है। जैसे एक ही कमरे में हजारों दीपकों का प्रकाश व्याघात के बिना समा जाता है। उसी प्रकार एक प्रदेश में भी अनंत परमाणु वाला स्कन्ध भी अतिसूक्ष्म परिणमन के कारण रह जाते हैं।
एक जीव का अवगाह लोक के असंख्यातवें भाग में होता है और सम्पूर्ण लोक में भी। एक जीव का सम्पूर्ण लोक में अवगाह तो सिर्फ केवली समुदघात के समय होता है। शेष सभी अवस्थाओं में एक जीव का अवगाह लोक के असंख्यात भाग में ही होता है। जीव कभी भी असंख्य आकाश प्रदेश में ही रहता है।
संसारी अवस्था में जीव के साथ कार्मण और तैजस् शरीर अवश्य होते है और इन्हीं के आकार परिणाम के अनुसार औदारिक शरीर होता है | इन्हीं शरीरों के आकार के अनुसार अपने प्रदेश का संकोच अथवा विस्तार करता है।
सूत्र में दीपक के प्रकाश की आत्म प्रदेशों के साथ संकोच विस्तार की उपमा दी गई है। दीपक को यदि कमरे में रख दिया जाय तो उसका प्रकाश पूरे कमरे में फैलेगा और यदि किसी पात्र