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________________ 23 24 2526 28 29 चतुर्गति के अष्ट कर्म नाशन को चतुराधक ने इस अवसर्पिणी में रत्नत्रयी जंबूद्वीप में चार अनुयोगी वीतराग धर्म के निश्चय-व्यवहार पक्षों सहित तपस्या की। पुरुषार्थी सरीसृपों की तरह दो धर्मध्यान-केवलत्व तक त्यागी को पहुंचाने में सक्षम होते हैं/तपस्वी त्यागी आरंभी गृहस्थ होकर भी सप्त तत्व चिंतन करके दो धर्म ध्यानों से सप्त तत्व चिंतन करता है । (गृहस्थ) सल्लेखी ने नौ पदार्थों का चिंतन करके चतुराधन किया । ऐलक/आर्यिका (सचेलकों) का तप स्वसंयम से ही संभव है । तीन धर्म ध्यानों वाले छठवीं प्रतिमाधारी श्रावक अरहंत भक्ति से अर्धचक्री की स्थिति से भी अष्टापद की तरह हार न मानने वाली सहनशीलता सहित सल्लेखना करते अष्टान्हिकाएं पालते और तप साधना करते अरहंत का ध्यान धरते हुए रत्नत्रय पालते हैं । पक्षियों द्वारा भी पुरुषार्थ और पंचपरमेष्ठी आराधना होती है । (अपने-अपने) भवचक्रों से पार उतरने दोनों बंधुओं (कुलभूषण देशभूषण) ने अरहंत पद हेतु साधना की और जिनशासन के तपस्वी बनकर पुरुषार्थमय वातावरण बनाया। एक गुणस्थानों से गिरे हुए व्यक्ति ने तपस्वी की तरह उठकर जिनशासन की शरण ली । भव घट को तिरने दो धर्म ध्यानों वाले सल्लेखना रहित जीव भी कषायों को दूर करके तपस्यारत हो ओंकारी भाव रखकर अरहंत पद की भावना भाते हैं। अरहंत पद इच्छुक वातावरण की अनुकूलता से गृहस्थ ने सप्त तत्त्व चिंतन करके रत्नत्रयी साधक बनकर चतुर्गति नाशने आरंभी गृहस्थ की भूमिका से भी पंचमगति के लिए भावना भाई। पंचम गति का साधक त्रिगुप्ति धारण करके तपस्या करने तत्पर दो धर्मध्यानी होता हुआ भी जंबूद्वीप में अरहंत सिद्ध आराधना करते छत्रधारी राजा और आर्यिका की भांति द्वादश अनुप्रेक्षा भाता वीतरागी तपस्यारत हो जाता है। सल्लेखी दो धर्मध्यानों की भूमिका वाले तपस्वी हैं जो छत्रधारी राजा होकर भी कैवल्य प्राप्ति की भक्ति लिए स्वसंयम का सेवी है । 30 31 32 33 34- 3536 37 38 दोनों बंधुओं का वातावरण एक सा (वैराग्यमय) पंचाचारी और पंच परमेष्ठी आराधक था । नवदेवता आराधन एवं तप ।। स्वस्तिक की मंगलकारी, पुण्योदयी उत्थानी प्रकृति । भवचक्र से पार होने वाले वे तीन धर्म ध्यानों के स्वामी स्वसंयम पालते हुए आर्त रौर्द्र ध्यान क्षय करते हैं और चतुराधन करते हुए निश्चय-व्यवहारी आत्म धर्म साधना करते हैं । क्षयोपशमी चतुराधक इस अवसर्पिणी में जंबूद्वीप में रत्नत्रय धर्म साधना करते चार अनुयोगी चतुर्विध संघाचार्य की शरण लेते हैं । 40 41 केवलत्व का तपस्वी निश्चय-व्यवहार धर्मी वातावरण में वीतरागी तप करता है । सल्लेखी आत्मस्थ ध्यानी वीतरागी तपस्या रत निकट भव्य है जो दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति के लिए चारों कषायों को त्याग चुका है। 86 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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