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श्री मैके का केटेलॉग फर्दर एक्सकेवेशन्स एट मोहन्जोदारो | एवं ॥ (1927 से 31 तक) पर्यायों की संसार में गिरान अस्पष्ट । चतुर्गति भ्रमण छेदने पंचम गति की साधना की । जहां आर्यिका/ऐलक भी तपस्यारत थे । अदम्य पुरुषार्थ किया था अदम्य पुरुषार्थ उठाते हुए चर्तुगति भ्रमण को नाशने हेतु पंचम गति की साधना क्षत्री एवं रत्नत्रयी त्यागी ने की। वैराग्य ले वीतराग तप किया और पंच परमेष्ठी आराधन भी किया । छत्रधारी ने (राजा ने) समाधिमरण में निश्चय-व्यवहार धर्म की शरण लेकर तीर्थकर प्रकृति पुण्य कर्म बांधा । चतुर्गतिक भ्रमण को काटने के लिए गिलहरी जैसा सदा उद्यमी रहना चाहिए। कैवल्य प्राप्ति द्वारा चतुर्गतिक भ्रमण को नाश करने वाले पंचम गति इच्छुक ने तपस्वी बनने से पूर्व एक ऐलक एवं रत्नत्रयी त्यागी के रूप में वैराग्य तपस्यारत हो वीतरागता स्वीकार कर चर्या की । एक दूसरे धर्मध्यानी व्यक्ति ने भवघट से तिरने हेतु चतुर्विध संघ की शरण लेकर श्रमणत्व धारा और अंत में कैवल्य प्राप्त कर मोक्ष गए। पक्षी भी जाप देते हैं। भवघट से तिरने दूसरे धर्मध्यान का अधिकारी सप्त तत्व चिंतन द्वारा (दो धर्मध्यानों से) दूसरे शुक्लध्यान तक की भूमिका बनाकर चतुर्गति को लांघकर पंचमगति की प्राप्ति करता है। गृहस्थ ने (गृह त्यागकर) वीतरागी तपस्या धारी । वह सल्लेखी तीसरे धर्मध्यान तक उठा हुआ स्वसंयमी था। सल्लेखना धारक दो धर्मध्यानों से उठकर चतुर्गति भ्रमण को रोकने वाली सल्लेखी आर्यिका है । चतुर्गति में उठान लाने वाला (स्वस्तिक) (मंगलमय माना गया है) । गुणस्थानोन्नति करने वाले तपस्वी पुरुषार्थी तीन धर्मध्यानी हैं जो अरहंत पद की भावना भाते हैं । अतः अर्धचक्री भी रत्नत्रय को धारण कर दो धर्मध्यानों से उपशम द्वारा आत्मानुभूति करके मांगीतुंगी अथवा उदयगिरि खण्डगिरि युगल अंगों पर संघस्थ होने चतुर्विध संघ के समीप जाते हैं । (पंच परमेष्ठी) जाप जपन से ही भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों की स्वामी दूसरे शुक्लध्यान तक की भूमिका बनाकर आत्मस्थ त्यागी और सम्यक्त्ववान आर्यिका बनकर क्रमशः छह भवों के निकट भव्यत्व को प्राप्त कर गुणस्थानोन्नति कर जाते हैं। वैयावृत्ति झूला रत्नत्रयी वीतरागी निश्चय-व्यवहार धर्म द्वारा स्वसंयमी चतुर्विध संघाचार्य की शरण में पहुंच कर वीतराग तप करता है। भवघट को नाशने घातिया कर्मों का नाश और भवबंधन काटना वीतरागी तप से ही संभव है जो करना होता है। भवचक्र को पारकर सिध्दत्व पाने, निकट भव्य तपस्या हेतु जंबूव्दीप में पुरुषार्थ से वीतरागी तप करता है।
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