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________________ तीर्थकर मुखोद,भव दिव्यध्वनि को सरस्वती के रूप में प्रतिदिन पूजा गया है। जिन श्रमण परंपरा में सामायिक, त्रिगुप्ति और प्रत्याख्यान का बहुत महत्व है। कायोत्सर्ग करके सोने के बाद बाधा आ जाने पर भी उठा नही जाता ऐसी ही स्थिति की संभावना उन चित्रों में दिखती है। महादेवन ने तमिल नाडु के एक गुफा मंदिर के शिलालेख में अंकित ब्राम्ही तपस्विनी का बोधक पम्मिती शब्द पढ़ा है अर्थात वह शिलालेख वहाँ किसी काल में आर्यिका के आवास की घोषणा करता है। सिंधु घाटी के कछारी मैदान में एक दिखती छिपती नदी को भी प्राचीन काल में सरस्वती नाम दिया गया था। एक मत पुराविदों का यह भी जोर पकड़ रहा है कि सैंधव सभ्यता को उसी नदी के नाम पर सरस्वती सभ्यता पुकारा जावे। यह सुझाव अनुकूल लगता है क्योंकि मथुरा की खुदाई में सबसे प्राचीन मूर्ति पुरादेवी के रूप में बैठी सरस्वती की ही निकली है। वह आर्यिका जैसी एक वस्त्रा है, एक हाथ में जाप और दूसरे में पाण्डुलिपि है। इसके अस्तित्व का कोई भान न होने के बावजूद परम्परागत शासनदेवी के रूप में मध्ययुगीन अति सुंदर चतुर्भुजी जैन सरस्वती बिंबों का निर्माण हुआ जिनमें विशेष बीकानेर, दिल्ली म्यूजियम, लाडनूं ,सावर तथा जहाजपुर आदि की हैं। उनके एक हाथ में जाप, दूसरे में पाण्डुलिपि, तीसरे मे कमण्डलु और चौथा अभय मुद्रा में है। जैन दैनिक पूजा के अंत में सरस्वती जिनवाणी पूजन सर्वदा होता ही है। इस तरह सैंधव सभ्यता संपूर्ण रूप से जिन प्रभावी सभ्यता होने का बोध देती है। ऐसी स्थिति में उसका नया नामकरण उसे ब्राम्ही की तपस्थली के साथ साथ दिव्य ध्वनि से भी जोड़ देता है। धर्म परिवर्तन के दबाव में आकर भी भारतीय मूल का जन्मा व्यक्ति उसे भुला नहीं सका। वह वाक्देवी गूगों के हृदय पर भी राज करती है। कुछ परिवर्तन करके हंस अथवा कमल के ऊपर उसे दर्शाकर श्वेत वस्त्रा, वीणा वादिनी के रूप में उसे जैनेतरों व्दारा पूजा जाता है किंतु पिच्छी की जगह मोर उसके आसपास होता है। सैंधव संपदा संपूर्ण भारत ही नहीं आसपास के नए नामों से जाने जा रहे सारे ही देशों में भी वैसी ही फैली पड़ी अपना श्रमण स्रोत दर्शा रही है ।अर्थात हड़प्पा सभ्यता से पूर्वकाल में भी वह वैसी ही संपन्न रही है। अतः उसे उसके उसी रूप में मान्यता देते हुए पुकारा जाना चाहिए। पिछले वर्षों में पुरानिधि अन्वेषकों को भारत के कई स्थलों पर मेवाड़ के आसपास आरंभिक कृषि काल संबंधी संकेत, औजार, अन्नागार और दाने आदि मिले हैं जिन्हें हड़प्पा पूर्वकालीन समझा जा रहा है। खारवेल की गुफा के नैसर्गिक भाग की सीलिंग पर एक शैलचित्र में ज्वार की गदा/गुच्छा दर्शित है। पुराविदों को उसे भी अब अध्ययन में लेना चाहिए। ब्रिटिश भारत में हड़प्पा के बाद दूसरी खुदाई एक वैसे ही सोए पड़े टीले की हुई जिसे मौनजोदरो/ मोहन्जोदड़ो पुकारा गया । उससे प्राप्त पुरा सामग्री सर जॉन मार्शल और ई.आइ.एच,मैके के व्दारा सहेजी गई जिसकी चर्चा आगे की गई है। उन पुराउत्खननों में भाग लेने वालों की बड़ी लंबी सूची है उसे अभी इतना ही लिखकर छोड़ा जा रहा है किंतु उनका वह श्रम एक तपस्या जैसा ही रहा है। खुले आसमान के नीचे हर पल मजदूरों के साथ इंच इंच मिट्टी खुदवाकर, सहेजते हुए छनवाकर कण कण को परखा आंका । सुनसान में पानी की बूंद बूंद को तरसते हुऐ भी आसपास खुदी धरती, तम्बू, मजदूरों के साथ अगले दिन की योजना, प्रतिदिन प्राप्त सामग्री का संपूर्ण ब्यौरा आदि आदि सहेजते अन्वेषक । कहने में सहज किंतु उतना ही जटिल रहा होगा। अहिच्छत्र के राजा द्रुपद वाले उस विशाल किंतु अधूरे उत्खनन अवशेषों को देखकर कुछ कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। 84 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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