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________________ पृष्ठ संख्या 13 के 17 से 25 (17) दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति निकट भव्य को भी रत्नत्रय पुनः साधने और चतुराधन से ही संभव होती है । (19) जिनध्वजा की शरण और ऊँ का स्मरण ही एकमात्र मोक्ष पथ है । जिनध्वजा की शरण और पुरुषार्थ से भव तिरना संभव है । षद्रव्यों का ध्यान और योगी का स्वसंयम ही उसे उपरोक्त स्थिति बनाते हैं। जिनध्वजा की शरण लेकर दो रसिक हृदयों ने अर्धचक्री होते हुए भी अष्ट गुण प्राप्ति हेतु संघस्थ होकर गुणस्थानी संयम उन्नत करते हुए रत्नत्रय और पंचाचार पालते हुए भवचक्र को दूर करनेका उपक्रम किया । (25) आत्मस्थ व्यक्ति अपने निश्चय-व्यवहार धर्म की शरण लेते पंचम गति का पुरुषार्थ करने ऐलकत्व रखते वैराग्य और तप द्वारा महाव्रत और मुनिपद धारण करता है । उपरोक्त सीलें/मुहरें हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त हुई थीं। हड़प्पा की रोचक कहानी है। अज्ञात काल का एक पकी ईंटों का लंबा चौड़ा टीला लाहौर के समीप मोन्टगोमरी मे सुनसान पड़ा था। कदाचित बरेली के समीप खड़े अहिच्छेत्र के खण्डहरों की भांति। उसका मालिक दिल्ली में रहता था । वह उसे बेचकर अपने उपयोग के लिए रकम चाहता था। लोग वहाँ से पकी बड़ी बड़ी ईंटें ढो ले जाकर अपने अपने घर तो बना लेते थे खण्डगिरि और बिलहरी की तरह किंतु उस लावारिस जैसे टीले को मिट्टी मोल भी खरीदने को कोई तैयार न था । वह क्षेत्र मैदान नहीं लंबा चौड़ा टीला सा दिखने लगा था क्योंकि धीरे धीरे उसकी ऊपरी लगभग सारी ईंटें बिन चुकी थीं। जब ब्रिटिश सरकार की रेल्वे लाइन डालने की योजना बनी तब सर्वेक्षण में उस क्षेत्र को उपयुक्त समझा गया । खुदाई में पुनः ईंटें निकलने लगीं। तब उसकी पुरातात्त्विक महत्ता समझकर वहाँ रेल लाइन न बिछाकर बाद में पुरा उत्खनन हुए और जो प्रागैतिहासिक संपदा निकली उसे हम अब देख रहे हैं। हड़प्पा के ही समीप तक्षशिला के अवशेष प्राप्त हुए। श्री वत्स ने 1921-1934 तक पश्चात मोर्टिमर व्हीलर ने हड़प्पा के उत्खनन करवाए । पुरा कालीन जीवन शैली में लौकिकता के साथ साथ तप श्रद्धान प्रबल था। इस कृषि प्रधान देश की सुदृढ़ अर्थ व्यवस्था थल और जल मार्गी व्यापार निर्भर थी जिनमें प्रमुख कपास, रेशम, ऊन, रत्न, आभूषण, स्वर्ण, पात्र, चंदन, मसाले, इत्र, पान आदि होते थे ऐसा जैन कथानकों में मिलता है। व्यापारी पूर्व सुव्यवस्थित मार्गों से ही रातें रुकते ठहरते आगे बढ़ते वर्षों में वापस आने तीर्थ यात्रियों की भांति निकलते थे। राजा श्रीपाल की कथा अति प्रसिध्द है जो समुद्र में धोखेबाजों व्दारा फेंके जाने पर णमोकार मंत्र के सहारे तैरते घोघा बंदरगाह पर किनारे आ लगा था । आज भी वहाँ के प्राचीन जिनमंदिर में पीतल का अति प्राचीन जिन सहस्त्रकूट है। वह मंदिर अति जीर्ण और जर्जर स्थिति में उध्दार चाहता है। पुरा धरोहर होने के बावजूद वर्तमान में वहाँ दिगम्बर समाज न होने से उपेक्षित पड़ा है। अनेकों मंदिरों के प्राचीन पाषाण निर्मित जिनसहस्त्रकूट खंडित टुकड़ों के रूप में आज भी बोधि गया वाले बुध्द मंदिर में स्तूपों में जड़े देखे जा सकते हैं। यह विडंबना है कि अहिंसा मूलक उस संस्कृति को विश्व ने मात्र प्रहार ही दिए और उसकी पहचान भी नष्ट कर देना चाहता है। हड़प्पा के ही समीप रावी के तट पर प्रसिध्द ब्रम्हाणी देवी मंदिर भी स्थित है जो आज भी ब्राम्ही के तप का स्मरण कराता है। हड़प्पा की खुदाई में मातृ शक्ति के वैभव का भान देती मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं। वह तीर्थकर माता का बोध कराती हैं। नर्तकी की मूर्ति भी निकली जिसे अनेक विव्दानों ने नीलांजना नाम दिया है। ऋषभजा ब्राम्ही को सरस्वती भी पुकारा गया है क्योंकि उसे लिपियों की अधिष्ठात्री माना गया है। उसी के नाम पर सैंधव की बेटी को भी ब्राम्ही लिपि कहा गया। 83 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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