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________________ (अ) चतुराधनी सल्लेखना और वैराग्यमय तप (ब) अस्पष्ट । (अ) दो धर्मध्यानी गृहस्थ की सल्लेखना जंबूद्वीप में (ब) तीन शुक्लध्यानी वातावरण अस्पष्ट । (अ) पुरुषार्थी का रत्नत्रय धारण एवं निश्चय - व्यवहार धर्म की शरण में जाना (ब) वातावरण तीन शुक्ल ध्यानों का । 681/682/683/684/685/686 अस्पष्ट । 677 678 679 680 (अ) भवचक्र / दो शुक्लध्यानी वातावरण अस्पष्ट । (अ) पंचम गति से चतुर्गति क्षय करने वाला अणुव्रती वीतरागी तपस्वी था (ब) तीन शुक्लध्यानी वातावरण बनाया । 690 / 91 - अस्पष्ट । (अ) क्षत्री चार अनुयोगी चतुर्विध संघाचार्य की शरण पहुंचकर सप्त तत्त्व चिंतन में लीन हुआ (ब) पुरुषार्थी ने वीतराग तपस्या द्वारा तीसरा शुक्लध्यान पाया (केवलत्व पाया)। 687 688 689 692 page No. CI 693-712 M.S.V. नौ पदार्थों का चिंतन मोक्ष पथ प्रदर्शक बनकर साधक को कैवल्य प्राप्त कराकर मोक्ष (क्रमोन्नति से) दिलाता है । (अ) भवचक्र को पार करने वह निकट भव्य (चौथे भव का मोक्षार्थी ) बनता है । (ब) तीन धर्म ध्यानी तपस्वी आत्मस्थ होकर रत्नत्रय पालता है । चारों कषायों को त्यागकर भवघट से तिरने में छत्रधारी सफल होता है । 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 707 708 709 710 713 लोकपूरण करता आत्मा दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति आत्मस्थ होकर करता है । वातावरण को वीतरागी ने वैराग्य से बनाया है । त्यागी आरंभी गृहस्थ गुणस्थानोन्नति करता हुआ रत्नत्रयी तपस्वी बन सकता है और वीतरागता धारण कर समाधिमरण को चतुराधन सहित कर लेता है । । ताड़ वृक्ष के नीचे भी दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति नौ पदार्थ चिंतन करते हुए वीतरागी तपस्वी कर सकता है । पंचम गति के लिए पंच परमेष्ठी आराधक चार धर्म ध्यानी संघ में जाता है। वातावरण दो शुक्लध्यान का बनाता है । ( अ ) अष्टापद युगल श्रंग शिखर (ब) मांगीतुंगी के शिखर पर जिन संघ की शरण में अपने षट आवश्यक करता है । (अ) युगल बंधुओं ने वीतराग तपस्या द्वारा चारों कषायों को दूर करके आत्मस्थता प्राप्त की और अरहंत पद पाया। (ब) तीन शुक्ल ध्यानों का वातावरण । अस्पष्ट । स्वसंयमी तपस्वी की तरह वैयाव्रत्य का झूला दो शुक्लध्यानों की प्राप्ति षद्रव्यों का चिंतन करते हुए तपस्या और कर्मक्षय । निकट भव्य का वातावरण । उसने वैराग्य तपस्या धारण की । तपस्वी ने इसी अवसर्पिणी में सल्लेखना ली। अंतहीन भटकन में उलझे संसारी जीव ने चारों गतियों के नाशन हेतु पुरुषार्थ बढ़ाते हुए क्रमोन्नति द्वारा वैराग्य धारण कर मोक्षपथी गुणस्थानोन्नति की । Jain Education International 82 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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