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________________ 42- भवघट से तिरने के लिए दो धर्मध्यानों के साथ तपस्वी की आत्मस्थता आवश्यक होती है । 43- सल्लेखी अदम्य पुरुषार्थी दो रसिक ह्रदयों ने भवचक्र पार करने पंचाचार पालते हुए पंचपरमेष्ठी की शरण ली। 44- भवघट से तिरने हेतु दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने चारों कषायों को दूर भगाकर सम्यक्त्व धारा । 45- चारों कषायों को दूर करके पक्षी ने कछुए की भांति स्वयं को अष्ट कर्मों से बचाने हेतु सल्लेखना धारण कर अरहंत सिध्दमय वातावरण बनाकर वीतरागी तप किया । 46- रत्नत्रयी जंबूद्वीप में दो शुक्लध्यानों की भावना भाते तपस्वी, संघाचार्य की शरण में, चतुराधन करते वीतरागी तप तपते हैं। 47- सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए (आर्यिका अथवा सचेलक ऐलक) भी स्वसंयम धारण करते हैं । 48- भवघट तिरने दो धर्मध्यानी (ऐलक / आर्यिका ) सचेलकों ने पंचाचार करके रत्नत्रयी तपस्वी बन वीतरागी तपस्या की । 49- तीन धर्म ध्यानी ने अदम्य पुरुषार्थ करके दो शुक्लध्यानों की भूमिका बनाई और संघाचार्य की शरण में रत्नत्रयी चतुरा धन किया । वे दोनों रसिक हृदय पूर्व में चक्रवर्ती थे । 50- चार शुक्लध्यानों की भूमिका हेतु वीतरागी तपस्या रत “निश्चय-व्यवहार धर्मी' समाधिमरणी भी चतुराधन करके महाव्रती बनकर वीतरागी तपस्या अपनी साधना द्वारा पूरी करता है । 51- भवघट से तिरने, दो धर्म ध्यानों का स्वामी भी तीसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति हेतु रत्नत्रयी वातावरण बनाकर वीतरागी तप स्या रत होते हैं । 52- चंचल मन पर नियंत्रण करके जिन सिंहासन की शरण में आत्मस्थता सदैव से ही प्रचलित है । जंबूद्वीप में (स्वयंभू रमण समुद्र कें) महामत्स्य जैसा संहनन पाकर तपस्वी और आर्यिका निकट भव्य बनकर मोक्षप्राप्ति का लक्ष्य करके गुणस्थानोन्नति करते हैं । 53-' आत्मस्थ वातावरण में अरहंत पद की भावना से चतुराधन करने के लिए चारों कषायें त्यागी और तपस्वी बना । 54- भवघट से पार उतरने को दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने दूसरे शुक्लध्यान की भावना भाई और तपस्वी बनकर छत्र धारी राजा की तरह (अंतहीन भटकान को तोड़कर) कैवल्य प्राप्ति के लिए वातावरण पंचम गति वाला बनाया तथा क्रमोन्नति से वीतरागी तप साधना की । 56- वीतरागी तपस्वी ने सल्लेखना धारण कर चतुराधन किया । 56- संसार चक्र से पार होने दूसरे धर्म ध्यानी ने दूसरे शुक्लध्यान (वाली कैवल्य) तक उन्नति के लिए अदम्य पुरुषार्थ उठाया और केवली के निश्चय व्यवहार धर्मी वातावरण में तपस्या करते हुए उस वातावरण को स्थिर किया । 57- भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के साथ अरहंत पद की भावना विद्याधर जीव ने भावना भाते भक्ति सहित सप्त तत्त्व चिंतन किया और वातावरण अनुकूल बनाया । 58- विद्याधर भक्ति पूर्वक पंच परमेष्ठी का आराधक बनकर उड़ता था और दो धर्म ध्यानी था । 60- भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों के स्वामी निकट भव्य ने मोक्षार्थी गुणोन्नति की । 61 - वीतरागी आत्मस्थ तपस्वी ने रत्नत्रय उठाते हुए चतुराधन. पंचाचार किया और पंच परमेष्ठी की आराधना की । 63- पंचम गति के लिए सप्त तत्त्व चिंतन करते हुए निश्चय व्यवहार धर्मी तपस्वी ने वीतराग तप किया । 64- अष्ट कर्म जन्य चतुर्गति भ्रमण को नाशने सल्लेखी ने स्वसंयमी बनकर पुरुषार्थ उठाया और वीतराग तपस्वी बन गया Jain Education International 87 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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