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________________ 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 79 80 81 82 83 भवचक्र से पार उतरने सल्लेखी ने दशधर्मी हुए चतुराधन किया और वीतरागी तप तपने लगा । शिखर चार अनुयोगी चर्या पुरुषार्थ सहित दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने अरहंत पद की प्राप्ति हेतु गुणस्थानोन्नति करते हुए तीर्थ पर सल्लेखना ली । भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने रत्नत्रयी साधना से पंचम गति हेतु जंबूद्वीप वाले क्षेत्र में अपने निश्चय-व्यवहारी धर्म से चारों कषायों को दूर किया । चार नयों के अधिकारी भवघट से पार उतरने दो धर्म ध्यानों से ही आत्मस्थता लेकर तपस्वी आचरण अरहंत पद प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ सहित चर्या करते हैं और वीतरागी तपस्या रत होकर तपस्वी बनते हैं। भवचक्र से पार उतरने स्वसंयमी ने कालचक्र को निश्चय - व्यवहार धर्म पूर्वक संघस्थ होकर लंबे कालचक्र तक भक्ति और पंचाचार करके आत्मस्थता सहित तपस्वी बन वैरागी तपस्वी रूप में क्रमशः चतुर्गति को सीमित करते हुए किया। पुरुषार्थी सल्लेखी वैराग्य / वीतराग तपस्या द्वारा अष्ट कर्मों को नाशने सर्प की तरह वीतरागी तप करते हैं। पुरुषार्थी सल्लेखी वीतराग धर्म पालन करते हुए अरहंत पद की भावना भाते सल्लेखना धारण कर स्वसंयमी तपस्वी बनकर वीतरागी तपस्या करते हैं । तीर्थंकरत्व का साधक निश्चय - व्ययवहार धर्मी षट् आवश्यक रत द्वादश तप लीन रहता है । तपस्वी निश्चय व्यवहारी सल्लेखना भाता तपस्वी हैं जो बारह भावना भाते और बारह तप करते हैं। चतुर्गति एवं अष्ट कर्म नाशन हेतु सल्लेखी निकट भव्य युगल बंधु हैं जो वीतरागी तपस्या के तपी है। वे षट् द्रव्य चिंतन करते हैं। दूसरे शुक्लध्यान का तपस्वी कैवल्य जयी है जिसने दो धर्म ध्यानों से तपस्या आरंभ करके स्वसंयम द्वारा चिंतन करते साधना की है । पंचम गति इच्छुक तपस्वी का वातावरण कैवल्य उपयुक्त है जो भवचक्र से पार संयम द्वारा ही लोकपूरण कराएगा । तीन धर्म ध्यानी वीतरागी तपस्वी ऐसा स्वयं तीर्थ हैं जिसने पक्षियों की तरह निरीह रहकर तीसरे शुक्लध्यान के लिए चतुअनुयोगी जिनलिंगियों के पास तप तपा । भव से तिरने वाले दो धर्म ध्यानों के स्वामी ऐलक तपस्वी ने पुरुषार्थ द्वारा गुणस्थानोन्नति करते हुए द्वादश तपों की तपस्या करके अपनी वैराग्य तप साधना की । भवघट से तिरने वाले दो धर्मध्यानों के स्वामी भी तीसरे शुक्लध्यान का पुरुषार्थ कर लेते हैं और रत्नत्रय साधते हैं। भवघट से तिरने के लिए दो धर्म ध्यानों के साथ आत्मस्थ हो निश्चय व्यवहार धर्मी जंबूद्वीप में स्वसंयमी ने त्यागी बनकर तप किया। गुणस्थानोन्नति करने हेतु तपस्वियों (मुनियों एवं आर्यिकाओं) ने तीन धर्म ध्यान की स्थिति से प्रारंभ करके चार अनुयोगी चतुर्विध संघाचार्य की शरण में साधना की । (पं.) तीर्थकर पद हेतु भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी जीवों ने त्याग करते हुए क्रमशः त्यागी फिर आर्यिका एवं ऐलक बनकर अपनी-अपनी वीतरागी तपस्या की । (पं.) पुरुषार्थी ने अष्ट कर्मों को नष्ट कर के केवली पद पाया । Jain Education International 888 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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