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दो शुक्लध्यानों की प्राप्ति, पुरुषार्थ द्वारा आत्मस्थ निश्चय-व्यवहारी ने वीतराग तपस्या करते हुए निश्चय व्यवहार धर्ममय जंबूद्वीप में छत्रधारी राजा की तरह रत्नत्रयधारी निकट भव्य बनकर की । पंचमगति साधक एक स्वसंयमी आरंभी था जिसने महामत्स्य की तरह उत्तम संहनन पाया और वीतराग तप साधना की भवघट से तिरने वाले वह कीर्तिमान भरत चक्री थे जिन्हें बाहुबली ने परास्त करके पटका था तथा जिन्होंने वातावरण को वीतराग आत्मस्थता से निकट भव्य बनकर जम्बूद्वीप में सल्लेखना की वैयावृत्ति से तीसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति की एकदेश स्वसंयमी तपस्वी दो शुक्लध्यानों को प्राप्तकर घातिया कर्मों का नाश करने हेतु वीतरागी तपस्यारत हुआ । तीन धर्म ध्यानी निकट भव्य कीर्तिवान तपस्वी ने दशधर्मों का पालन किया और व्रत धारण किए । दो धर्म ध्यानों का स्वामी भी समाधिमरण को चतुराधक की भूमिका के साथ करता हुआ वीतरागी तपस्वी होता है। चार शुक्लध्यानों का ध्यानी, रत्नत्रयधारी, तीर्थकर प्रकृति वाला तपस्वी होता है जो उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में सदैव ही संभव रहा है। महामत्स्य के जैसे उत्तम संहनन वालों (वजवृषभनाराच संहननी पुरुषों ) ने हर उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालाओं में अष्ट कर्मों वाली चतुर्गति के नाशन हेतु वीतराग तप किया है। षट् आवश्यक लीन जिनशासनलिंगी संघाचार्य के निर्देशन में श्रावक-श्राविका षट् द्रव्य चिंतन करते हैं । चारों कषायों को त्यागकर ही जंबूद्वीप में आत्मस्थ होने से केवलत्व की प्राप्ति होती है । सल्लेखी ने चार गतियों से छुटकारा पाने के लिए जंबूद्वीप में चतुराधन किया और कालांतर में क्षयोपशम प्रभावी वीतराग
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तप धारा। 95- (महामत्स्य जैसे उद्यमी उत्तम संहननी ने) दो धर्म ध्यानों से पुरुषार्थ उठाते हुए पक्षियों जैसी पुरुषार्थी साधना की ।
अस्पष्ट । 97- गुणस्थानोन्नति करते, द्वादश तप तपते तीन धर्मध्यानों के स्वामी ने पुरुषार्थ करते हुए वीतराग तप किया । 98
अष्ट कर्मों को नाशने अष्ट गुण पाने कषायों को त्यागते और घातिया चतुष्क का क्षय करके भवचक्र से पार उतरने युगल तपस्वियों ने दो धर्म ध्यानों से ही एकदेश स्वसंयम धारण करते हुए तपस्यारत हो वैयावृत्ति पाई और वीतराग
तप किया । 99- षट् नयों से (दृष्टि की अपूर्णता रखते) पंचम गति को वीतराग वातावरण में तपस्या और महाव्रत की चर्या लेकर पंच
परमेष्ठी आराधन से तपस्वी ने निश्चय व्यवहार धर्मी वातावरण में वीतरागी तप तपा | 100- भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानी तपस्वियों ने सल्लेखना ली और चतुराधना की । 101- स्वंयतीर्थ ने युगल शिखरों पर सल्लेखना द्वारा भवचक्र पार किया । 102- भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने रत्नत्रयी दशधर्म पालन कर वीतराग तपस्या की । 103- भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों के स्वामी ने दो शुक्लध्यानों की प्राप्ति हेतु चतुर्गति भ्रमण नाश करके पंचम गति पाने
के लिए वीतरागी तपस्या की और सिध्दत्व पाकर जंबूव्दीप को रत्नत्रयी कर गए। 104- रत्नत्रयी साधक ने चतुराधन सहित समाधिमरण करके वीतरागी तपस्या को पूर्णता दी ।
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