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________________ 105- आरंभी गृहस्थ ने स्वसंयमी बनकर, गुणस्थानोन्नति करते हुए भवान्तरों में तीर्थंकर प्रकृति पायी । 106- रत्नत्रयी अपने पुरुषार्थ को प्रकटाकर दो शुक्लध्यानों की स्थिति तक पहुंचने चतुराधक बनकर निश्चय-व्यवहार धर्म को पालता है। 107- आरंभी गृहस्थों ने महामत्स्य की तरह उत्तम संहनन पाकर उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालाओं में निकट भव्य बनकर सल्लेखना सहित दो धर्म ध्यानों के साथ षद्रव्य चिंतन करते हुए वीतरागी तपस्या की । 108- महाव्रती ने भक्त के रूप में व्यवहार धर्म की तपस्या की । 109- संघाचार्य की शरण लेकर तीन धर्मध्यानी ने त्रिगुप्ति धारणकर पंचम गति का साधन बनाया और तपस्वी के रूप में रत्नत्रयी केवली के रूप में ख्याति पाई जिस प्रकार कि दो धर्मध्यानों के साथ महामत्स्य जैसे उत्तम संहननी ने हर युगार्ध में वैयावृत्ति का झूला पाते सल्लेखना लेकर तपस्या की है । 110- उस तपस्वी साधु ने वातावरण में शुद्धत्व के लिए कैवल्य की साधना करके अरहंत पद पाने वाला स्वसंयम एवं मुनिव्रत 111- तीन धर्म ध्यान की भूमिका से तद्भवी मोक्षार्थी तपस्वी ने उठकर दो शुक्लध्यान पाने हेतु आरंभी गृहस्थ की स्थिति से अरहंत भक्ति करके निश्चय-व्यवहार धर्म को स्वसंयमी बनकर पंचम गति के लिए अरहंत भक्ति में जा की । 112- रत्नत्रयी जंबूद्वीप में वह रत्नत्रय साधते हुए चतुराधक बना । 113- पंच परमेष्ठी आराधक वह निश्चय-व्यवहारी तपस्वी आचार्य की शरणागत हुआ । ___ ढाईद्वीप में दूसरे शुक्ल ध्यानी ने लोकपूरणी समुद्घात संघाचार्य के चरणों में किया । 115- अदम्य पुरुषार्थी ने सल्लेखना लेकर वीतरागी तपस्या आत्मस्थता से करते हुए ढाईद्वीप में दो ध्यान की प्राप्ति हेतु वीतरागी तप किया। 116- ऐलक (सचेलक) ने रत्नत्रयी दिगंबर मुनित्व धारा । 117- तीर्थकर प्रकृति बांधा जीव मोक्षपथ प्राप्ति हेतु शुक्लध्याने की प्राप्ति नदी के तट पर भी वीतराग तपस्या से करते हैं। 118- आत्मस्थ तपस्वी, मन की चंचलता को स्थिर करके पंचमगति की साधना करते केवलज्ञान पाने चतुराधक रहते हैं । 119- (अ) पुरुषार्थी रत्नत्रयधारी राजा ने संघाचार्य के समीप भव घट से तिरने के लिए पंचम गति से सिद्धत्व के लिए उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल युगाओं में साधना की । (ब) आरंभी गृहस्थ ने तदभव मोक्ष का पुण्य कर्म बांधकर तीर्थकर पद पाया । 120- चतुर्गति की अंतहीन भटकन से बचने के लिए दो धर्मध्यानी साधक ने रत्नत्रयी जंबूद्वीप में ऐलक स्थिति से सप्त तत्त्व चिंतन करते हुए पंचम गति के लिए वीतरागी तपस्या रत होकर निश्चय-व्यवहार धर्म पालन करते चतुर्गति भ्रमण का नाश किया । 121- सल्लेखी अणुव्रती ने सप्त तत्व चिंतन करते वीतरागी तपस्या की । 122- निकट भव्य ने सल्लेखना धारण करके दो शुक्लध्यान की प्रप्ति हेतु पुरुषार्थ उठाया,बढ़ाया और वीतरागी तपस्या की 123- रत्नत्रयी जंबूद्वीप में आत्मस्थ सम्यक्त्व तपस्वी और आर्यिकाएं आरंभी गृहस्थ की भूमिका से तीन धर्म ध्यानी बनकर स्वसंयम से आगे बढ़ते हैं । 124- तीर्थकरत्व के लिए निश्चय और व्यवहार धर्म धर्माचार्यों दोनों ही समान रूप से भूमिका रहे हैं । 90 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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