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________________ 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 अदम्य पुरुषार्थी वह अष्टापद जैसा संघस्थ तपस्वी सिद्धत्व हेतु अनुकूल वातावरण करता उत्तरोत्तर वीतरागी तपस्वी होता है । पांचसूनों को त्यागने वाला आरंभी गृहस्थ ही सिद्ध पद को स्वसंयम से पाता है । अष्ट मूलगुणों का श्रद्धानी और रत्नत्रय सेवी ही "इष्ट" है । स्वसंयमी पुरुषार्थी, अष्टापद जैसा निकट भव्य रत्नत्रयी पंचाचार द्वारा दो धर्म ध्यानों का स्वामी होकर भी षट् द्रव्य चिंतक त्यागी होता है जो वीतरागी तपस्वी बनता है । केवलत्व के लिए जंबूद्वीप में मन वचन काय की समता धारण कर वातावरण को ओंकारमय बनाकर आत्मस्थ वीतरागी हो छत्रधारी राजा भी त्यागी तपस्वी बनकर द्वादश भावना भाता निकट भव्य बनकर पंचमगति साधना करता है । सल्लेखी सिद्धत्व हेतु भवचक्र पार होने दूसरे धर्मध्यान से दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति हेतु महाव्रत की पिच्छी धारण करता और स्वसंयमी बनता है । चार गतियों को नाशने कछुआ प्रवृत्ति सजग तपस्वी सल्लेखना तत्पर वातावरण में वैय्यावृत्त्य और रत्नत्रयी साधना करते द्रव्यलिंगी मुनि श्रमण की सक्षम तपस्या करता हैं । भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानी तपस्वी स्वसंयम को आधार बनाते हैं । मगर और कायोत्सर्गी अर्थात् कर्म फल चेतना से कभी भी कोई जीव, तपस्वी भी नहीं बचे हैं। यह पुष्पदंत प्रभु का लांछन भी है। लोकपूरणी समुद्घात करने वाला जीव केवली है जो पंचमगति का अधिकारी है, सल्लेखी हैं, जो महाव्रती है और निश्चय - व्यवहार धर्म वाले चतुर्विध संघ का कीर्तिवान स्वामी है । वीतराग तपस्या का प्रतीक । (विमलनाथ का लांछन, शूकर) भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों का स्वामी छत्रधारी राजा, तपस्वी है। दो धर्मध्यानों का स्वामी प्रतिमाधारी बनकर रत्नत्रय का धारी वीतरागी तपस्वी है । जंबूद्वीप से ही तिरने निकट भव्य एकदेश स्वसंयमी मन को स्थिर करके आत्मस्थता से उर्ध्व पंचमगति की साधना वैराग्य पुरुषार्थ से तपस्या ढाई द्वीप में करता है । ढाईद्वीप में आत्मस्थता, रत्नत्रय धारण और सप्त तत्व चिंतन कल्याणकारी है । तीन स्थिरताओं (मनवचनकाय) के वातावरण का स्वामी सप्त तत्त्वों का चिंतन करके दो धर्म ध्यानों से भी सल्लेखना धारणकर वीतरागी तप तपता है । दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति के लिए ढाईद्वीप में दो धर्मध्यानों के स्वामी पक्षी ने रत्नत्रय के वातावरण में वीतराग तपस्या धारण की। भवान्तरों में सफलता ) छत्रधारी राजा भी निकट भव्य बनकर गुणस्थानोन्नति करता है । पंचाचारी त्यागी पुरुषार्थमय सल्लेखना धारण कर पुरुषार्थवान स्वसंयम अपनाता है । जिनलिंगी अदम्य पुरुषार्थी वीतराग तपस्वी होते हैं । Jain Education International 91 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org/
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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