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________________ 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155- 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 समाधिमरण करने वाला चतुराधक वीतरागी तपस्वी, स्वसंयमी है जो ढाईद्वीप में निश्चय व्यवहार धर्म को पालता है । भवचक को पार करने वाला सल्लेखी छत्रधारी राजा अथवा आर्यिका या ऐलक, त्रिगुप्ति धारण करके, वैयाव्रती वीतरागी तप साधना करते हैं । भवचक्र से पार उतरने, दो धर्म ध्यानों के स्वामी ढाईद्वीप में आत्मस्थता लेकर रत्नत्रय का पालन करते धर्मध्यानी होते हैं । सिद्धत्व प्राप्त करते स्वयं तीर्थ ने युगल षिखरों पर पुरुषार्थी पंच परमेष्ठी आराधना की । जिन ध्वजा में (सोलहकारणी साधना ) का उद्घोष । खंडित है। निकट भव्य का घातिया चतुष्क क्षय कषायों के त्याग द्वारा । पंचमगति की भावना करने वाला महामत्स्य सा उत्तम संहननी तपस्वी तीर्थकर प्रकृति बांधने वाला वीतरागी तपस्वी है चतुराधक तपस्वी दशधर्म का धारी वीतरागी तपस्वी सल्लेखी निश्चय व्यवहार धर्मी, पंच परमेष्ठी आराधक वीतरागी तप तपने वाला तपस्वी है । चार गतियों के संसार में भी आत्मस्थता संभव है जिसमें बाहरी ओर बढ़ने से भटकन और केन्द्र में उत्थान है दश धर्मों का पालन केंद्रीय उर्ध्व गति का सहयोगी है। नवदेवताओं का संसार में रहते श्रद्धान है। चतुराधक पुरुषार्थवानी सल्लेखी है / थी जिसने तीर्थंकरत्व के लिए क्षयोपशम द्वारा युगल श्रृंगियों पर गुणस्थानोन्नति करता हुआ जिनशासन स्वीकारा है और वीतरागी तपस्या की । दशधर्म का ध्यानी वीतरागी तपस्वी है । सल्लेखी का वातावरण धर्मी शिखर तीर्थ पर निकट भव्य बनकर चार अनुयोगी वीतरागी निश्चय व्यवहार धर्म की शरण से तप कराता हैं। भवचक्रों से पार होने आत्मस्थ जंबूद्वीप में (उर्ध्वगामी) वीतरागी तपस्वी संघ में रहकर रत्नत्रय पालते और वैराग्य तप धारते हैं। ऐलक / आर्यिका भी स्वसंयम धारक होते हैं । भवचक से पार होने दो धर्मध्यानों का स्वानी निकट भव्य दूसरे शुक्लध्यान की (अरहंत पद) प्राप्ति हेतु तपस्वी बन द्वादश भावना भाते हुए वीतरागी तपस्या में रत रहते पंचमगति की साधना करते हैं। निकट भव्य की गुणस्थानोन्नति द्वादश अनुप्रेक्षा और वीतरागी तपस्या में रत रहने से होती है। भवचक्र से पार होने दो धर्म ध्यानों का स्वामी तपस्वी बन चतुर्गति भ्रमण रोकने तीर्थकर की शरण में सल्लेखी बन वैय्यावृत्त का झूला पाता है । चार गतियों के भ्रमण को रोकने के लिए बार-बार पुरुषार्थ और आत्मस्थ वातावरण की आवश्यकता होती है । दशधर्म सेवी ने रत्नत्रयी चतुराधन द्वारा दो धर्मध्यानों का स्वामी होकर भी सल्लेखना धारकर वीतरागी तपस्या की । तीसरे शुक्लध्यान का रत्नत्रयी स्वामी पूर्व में (प्रारंभ में) मात्र तीसरे धर्मध्यान का स्वामी था । Jain Education International 92 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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