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________________ 168 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188- 189 190 4 भवचक्र से पार होने दो धर्मध्यानों का स्वामी और पंचाचारी होकर रत्नत्रयी तपस्यारत वीतरागी तपस्या तपता है । अरहंत की शरणागत दुर्ध्यानों का त्यागी पंचम गति का साधन चतुराधन से रत्नत्रयी जंबूद्वीप में चार अनुयोगी अरहंत की शरणागत निश्चय-व्यवहार धर्मी दो धर्मध्यानों का स्वामी है जो दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति के लिए तपस्या लीन आत्मस्थ होकर चारों कषायों को त्यागता है । ये उल्टा स्वास्तिक पर्यायों की गिरान वाला अशुभ है, और संसार बढ़ाने वाला है । जंबूद्वीप में मन वचन काय की समता द्वारा पाँच समिति और पाँच महाव्रत पलते हैं । दूसरे शुक्लध्यानी अरहंत ने शिखर तीर्थ पर रत्नत्रयी चतुराधक बन दो धर्म ध्यानों के स्वामित्व से क्रमोन्नति कर आत्मस्थ तपस्वी बन निकट भव्यत्व पाकर वीतरागी तपस्या की । चार अनुयोगों का ज्ञान निश्चय-व्यवहार धर्म के तपस्वी को षट्द्रव्यों के चिंतन से जोड़ता है । पंचमगति का ध्येय लिए रत्नत्रय पालने वाला भवचक्र से पार हो सिद्धत्व पाता है । भवघट से तिरने के लिए दो धर्म ध्यानों का स्वामी पंचाचारी समाधिमरण करके वीतरागी तपस्या का कीर्तिवान तपस्वी बनता है । भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी दशधर्मो का सेवन, ढाईद्वीप में निश्चय व्यवहार धर्म साधना सहित वीतरागी तपस्या द्वारा सल्लेखना सहित चार भवों वाली निकट भव्यता पाता है । भवघट से तिरने वाला तीन धर्म ध्यानों का स्वामी पंचमगति इच्छुक पंच परमेष्ठी आराधन और वीतरागी तप करता मोक्ष पाता है । भवघट तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी तीसरे शुक्लध्यान तक का स्वामित्व रत्नत्रय के सहारे प्राप्त कर सकता है। चतुराधक सल्लेखी समाधिमरण में लीन रहने वाला वीतरागी तपस्वी है । संघाचार्य चतुराधक है । चातुर्मास करता निकट भव्य साधक पंचाचारी तपस्वी है जो स्वसंयम से इच्छा निरोधक है । संघस्थ निकट भव्य ने दूसरे धर्म ध्यानी वातावरण से उठकर ऐलक / आर्यिका दीक्षा ली और अरहंत पद की भावना भाते निश्चय व्यवहारी धर्म पालते वीतरागी तपस्या की। पंचमगति का इच्छुक आत्मस्थ वीतरागी तपस्वी छत्रधारी राजा चारों कषायों को त्याग करने वाला जंबूद्वीप में आत्मस्था तीसरे शुक्लध्यान का ध्यानी बना । द्वारा छत्रधारी राजा ने ऐलक की तरह दीक्षा लेकर द्वादश अनुप्रेक्षा से उन्नति कर निश्चय व्यवहारी धर्म की शरण में दिगंबर 'चतुर्चिध संघाचार्य की शरण पाई । चतुर्गति भ्रमण और अष्ट कर्मों की बाधा टालने के लिए दूसरे शुक्लध्यान की आवश्यकता होती है जो भवघट से तिराते हैं । अस्पष्ट । ऐलक / आर्यिका पंचम गति साधने गुणस्थानोन्नति तत्पर हैं । अदम्य पुरुषार्थी छत्रधारी ने सल्लेखना धारण कर महाव्रत की पिच्छी को राजा छत्र रूप स्वीकारा और चतुर्गति भ्रमण Jain Education International 93 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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